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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। २४३ अर्थ-जो जीव सम्यक्त्वसे तो च्युत हो गया है किन्तु मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं हुआ है उसको सासन कहते हैं। यह जीव पांचमे पारणामिक भावोंसे युक्त होता है । भावार्थसासनरूप परिणामोंका होना भी सम्यक्त्वगुणका एक विपरिणाम है, इसलिये यह भी सम्यक्त्वमार्गणाका एक भेद है । अत एव यहां पर इसका वर्णन किया है। क्योंकि सम्यक्त्वमार्गणामें सामान्य से सम्यक्त्वके समस्त भेदोंका वर्णन करना चाहिये । इस गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयकी अपेक्षा पारणामिक भाव होते हैं, तथा अनन्तानुबंधी आदिकी अपेक्षा औदायिकादि भाव होते हैं । और इसका विशेष खरूप गुणस्थानाधिकारमें कह चुके हैं इसलिये यहां नहीं कहते हैं। मिश्रगुणस्थानका खरूप बताते हैं । सदहणासद्दहणं जस्स य जीवस्स होइ तच्चेसु । विरयाविरयेण समो सम्मामिच्छोत्ति णायवो ॥ ६५४ ॥ श्रद्धानाश्रद्धानं यस्य च जीवस्य भवति तत्त्वेषु । विरताविरतेन समः सम्यग्यिथ्य इति ज्ञातव्यः ॥ ६५४ ॥ अर्थ-विरताविरतकी तरह जिस जीवके तत्त्वके विषयमें श्रद्धान और अश्रद्धान दोनो हों उसको सम्यग्मिथ्यादृष्टि समझना चाहिये । भावार्थ-जिसतरह विरत और अविरत दोनों प्रकारके परिणामोंके जोड़की अपेक्षा विरताविरत नामका पांचमा गुणस्थान होता है, उसी तरह श्रद्धान और अश्रद्धानरूप परिणामों के जोड़की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व नामका तीसरा गुणस्थान होता है। यह भी सम्यक्त्वमार्गणाका एक भेद है। मिच्छाइट्टी जीवो उवइटं पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असब्भा उवइट्ट वा अणुवइ8॥ ६५५ ॥ मिथ्यादृष्टिर्जीव उपदिष्टं प्रवचनं न श्रद्दधाति । __ श्रद्दधाति असद्भावमुपदिष्टं वा अनुपदिष्टम् ॥ ६५५ ॥ अर्थ-जो जीव जिनेन्द्रदेवके कहे हुए आप्त आगम पदार्थका श्रद्धान नहीं करता; किन्तु कुगुरुओंके कहे हुए या विना कहे हुए भी मिथ्या पदार्थका श्रद्धान करता है उसको मिथ्यादृष्टि कहते हैं । भावार्थ-मिथ्यात्व-दर्शनमोहनीयके उदयसे दो प्रकारके विपरिणाम होते हैं । एक ग्रहीत विपरीत श्रद्धान दूसरा अग्रहीत विपरीत श्रद्धान । जो कुगुरुओंके उपदेशसे विपरीत श्रद्धान होता है उसको ग्रहीतमिथ्यात्व कहते हैं। और जो विना उपदेशके ही विपरीत श्रद्धान हो उसको अग्रहीतमिथ्यात्व कहते हैं । इन दोनों ही प्रकारके विपरिणामोंको मिथ्यात्व इस सामान्य शब्दसे कहते हैं। तथा यह मिथ्यात्व सम्यक्त्वमार्गणाका एक भेद है। इसलिये इसी गाथाको एकवार गुणस्थानाधिकारमें आने पर भी यहां दूसरीवार कहा है। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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