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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। २४१ अर्थ-सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृति के उदयसे पदार्थोंका जो चल मलिन अगाढरूप श्रद्धान होता है उसको वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। भावार्थ-मिथ्यात्व मिश्र और अनंतानुबंधी चतुष्क इनका सर्वथा क्षय अथवा उदयाभावी क्षय और उपशम हो चुकने पर; किन्तु अवशिष्ट सम्यक्त्वप्रकृतिके उदय होते हुए पदार्थोंका जो श्रद्धान होता है उसको वेदक सम्यक्त्व कहते हैं । यहां पर भी सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयजनित चलता मलिनता और अगाढता ये तीन दोष होते हैं । इन तीनोंका लक्षण पहले कहचुके हैं। तीन गाथाओंमें उपशम सम्यक्त्वका स्वरूप और सामग्रीका वर्णन करते हैं। दंसणमोहुवसमदो उप्पजइ जं पयत्थसदहणं । उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णमलपंकतोयसमं ॥ ६४९ ॥ दर्शनमोहोपशमादुत्पद्यते यत्पदार्थश्रद्धानम् । उपशमसम्यक्त्वमिदं प्रसन्नमलपङ्कतोयसमम् ॥ ६४९ ॥ अर्थ-उक्त सम्यक्त्वविरोधिनी सात प्रकृतियोंके उपशमसे जो पदार्थोंका श्रद्धान होता है उसको उपशमसम्यक्त्व कहते हैं । यह सम्यक्त्व इस तरहका निर्मल होता है जैसा कि निर्मली आदि पदार्थों के निमित्तसे कीचड़ आदि मलके नीचे बैठ जाने पर जल निर्मल होता है । भावार्थ-उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व निर्मलताकी अपेक्षा समान हैं; क्योंकि प्रतिपक्षी कर्मोंका उदय दोनों ही स्थानपर नहीं है। किन्तु विशेषता.इतनी ही है कि क्षायिक सम्यक्त्वके प्रतिपक्षी कर्मका सर्वथा अभाव होगया है, और उपशम सम्यक्त्वके प्रतिपक्षी कर्मकी सत्ता है। जैसे किसी जलमें निर्मली आदिके द्वारा ऊपरसे निर्मलता होने पर भी नीचे कीचड़ जमी रहती है, और किसी जलके नीचे कीचड़ रहती ही नहीं । ये दोनों जल निर्मलताकी अपेक्षा समान हैं । अन्तर यही है कि एकके नीचे कीचड़ है दूसरीके नीचे कीचड़ नहीं है । खयउवसमियविसोही देसणपाउग्गकरणलद्धी य । . चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होदि सम्मत्ते ॥ ६५० ॥ क्षायोपशमिकविशुद्धी देशना प्रायोग्यकरणलब्धी च। चतस्रोऽपि सामान्याः करणं पुनर्भवति सम्यक्त्वे ॥ ६५० ॥ अर्थ-क्षायोपशमिक, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य, करण, ये पांच लब्धि हैं । इनमें चार तो सामान्य हैं; किन्तु करण-लब्धि विशेष है-इसके होनेपर सम्यक्त्व या चारित्र नियमसे होता है । भावार्थ-लब्धि शब्दका अर्थ प्राप्ति है । प्रकृतमें सम्यक्त्व ग्रहण करनेके योग्य सामग्रीकी प्राप्ति होना इसको लब्धि कहते हैं । उसके उक्त पांच भेद हैं। सम्यक्त्वके योग्य कर्मोंके क्षयोपशम होनेको क्षायोपशमिक लब्धि कहते हैं । निर्मलताविशेषको विशुद्धि कहते हैं । योग्य उपदेशको देशना कहते हैं । पंचेन्द्रियादिस्वरूप For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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