SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः । २३९ है; क्योंकि अयोगि गुणस्थानके अन्त में जितनी कर्म प्रकृतियोंकी सत्ता रहती है उतना ही मोक्षद्रव्या प्रमाण है । तथा यहां पर ( अयोगि गुणस्थानके अंत समय में ) कर्मों की सत्ता गुणहानिगुणित समयप्रबद्धप्रमाण है । इसलिये मोक्षद्रव्यका प्रमाण भी व्यर्धगुणहानि - गुणितसमयबद्धप्रमाण ही है । इस प्रकार इन सात तत्वोंका श्रद्धान करना चाहिये । भावार्थ- पूर्व में जो छह द्रव्य पञ्चास्तिकाय नव पदार्थों का स्वरूप बताया है उसके अनुसार ही उनका श्रद्धान करना चहिये; क्योंकि इनके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहते हैं । सम्यक्त्वके भेदोंको गिनानेके पहले क्षायिक सम्यक्त्वका खरूप बताते हैं । खीणे दंसणमोहे जं सद्दहणं सुणिम्मलं होई । तं खाइयसम्मत्तं णिच्चं कम्मक्खवणहेदु ॥ ६४५ ॥ क्षीणे दर्शनमोहे यच्छ्रद्धानं सुनिर्मलं भवति । तत्क्षायिकसम्यक्त्वं नित्यं कर्मक्षपणहेतु ।। ६४५ ॥ अर्थ — दर्शनमोहनीय कर्मके क्षीण होजाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है उसको क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं । यह सम्यक्त्व नित्य और कर्मों के क्षय होनेका कारण है । भावार्थ — यद्यपि दर्शनमोहनीयके मिथ्यात्व मिश्र सम्यक्त्वप्रकृति ये तीन ही भेद हैं; तथापि अनंतानुबंधी कषाय भी दर्शन गुणको विपरीत करता है इसलिये इसको भी दर्शनमोहनीय कहते हैं । इसी लिये आचायोंने पञ्चाध्यायी में कहा है कि 'सप्तैते दृष्टिमोहनम् ' अतएव इन सात प्रकृतियोंके सर्वथा क्षीण होजानेसे दर्शन गुणकी जो अत्यन्त निर्मल अवस्था होती है उसको क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं । इसके प्रतिपक्षी कर्मका एकदेश भी अवशिष्ट नहीं रहा है इस ही लिये यह दूसरे सम्यक्त्वोंकी तरह सांत नहीं है । तथा इसके होनेपर असंख्यातगुणी कर्मोंकी निर्जरा होती है इसलिये यह कर्मक्षयका हेतु है । इसी अभिप्रायका बोधक दूसरा क्षेपक गाथा भी है । वह इसप्रकार है कि— दंसणमोहे खविदेसिज्झदि एक्केव तदियतुरियभवे । णादिकदि तुरियभवं ण विणस्सदि सेससम्मं व ॥ १ ॥ दर्शनमोहे क्षपिते सिद्ध्यति एकस्मिन्नेव तृतीयतुरीयभवे । नातिक्रामति तुरीयभवं न विनश्यति शेषसम्यक्त्वं व ॥ १ ॥ अर्थ - दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय होजाने पर उस ही भवमें या तीसरे चौथे भवमें जीव सिद्धपदको प्राप्त होता है, किन्तु चौथे भवका उल्लंघन नहीं करता, तथा दूसरे सम्यक्त्वोंकी तरह यह सम्यक्त्व नष्ट नहीं होता । भावार्थ - क्षायिक समग्दर्शन होने पर या तो उस ही भवमें जीव सिद्धपदको प्राप्त होजाता है । या देवायुका बंध होगया हो तो तीसरे भवमें सिद्ध होता है । यदि सम्यग्दर्शन के पहले मिथ्यात्व अवस्था में मनुष्य या For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy