SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २२८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । रहनेपर सर्वत्र बंध होता है। इस नियमके अनुसार एकगुणवाले और तीनगुणवालेका भी बंध होना चाहिये किन्तु सो नहीं होता; क्योंकि यह नियम है कि जघन्य गुणवालेका बंध नहीं होता । अतएव एक गुणवालेका तीन गुणवालेके साथ बंध नहीं होता; किन्तु तीन गुणवालेका पांच गुणवालेके साथ बंध हो सकता है, क्योंकि तीन गुणवाला जघन्यगुणवाला नहीं है, एकगुणवालेको ही जघन्य गुणवाला कहते हैं । णिद्धिदरवरगुणाणू सपरहाणेवि णेदि बंधटुं । बहिरंतरंगहेदुहि गुणंतरं संगदे एदि ॥ ६१७ ॥ स्निग्धेतरावरगुणाणुः स्वपरस्थानेऽपि नैति बन्धार्थम् । __ बहिरंतरङ्गहतुभिर्गुणान्तरं संगते एति ॥ ६१७ ॥ अर्थ-स्निग्ध या रूक्षका जघन्य गुणवाला परमाणु खस्थान या परस्थान कहीं भी बन्धको प्राप्त नहीं होता। किन्तु बाह्य और अन्तरङ्ग कारणके निमित्तसे किसी दूसरे गुणवालाअंशवाला होने पर बन्धको प्राप्त होते हैं । भावार्थ-स्निग्ध या रूक्ष गुणका जब एक अंश-अविभागप्रतिच्छेद-रूप परिणमन होता है तब उसका न स्वस्थानमें बंध होता है और न परस्थानमें बंध होता है । किन्तु बाह्य अभ्यन्तर कारणके निमित्तसे जब जघन्य स्थानको छोड़कर अधिक अंशरूप परिणमन होजाय तब वे ही स्निग्ध रूक्ष गुण बंधको प्राप्त हो सकते हैं। णिद्धिदरगुणा अहिया हीणं परिणामयंति बंधम्मि । संखेजासंखेजाणंतपदेसाण खंधाणं ॥ ६१८॥ स्निग्धेतरगुणा अधिका हीनं परिणामयंति बन्धे । संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशानां स्कन्धानाम् ॥ ६१८ ॥ अर्थ—संख्यात असंख्यात अनंतप्रदेवाले स्कन्धोंमें स्निग्ध या रूक्षके अधिक गुणवाले परमाणु या स्कन्ध अपने से हीनगुणवाले परमाणु या स्कन्धोंको अपनेरूप परणमाते हैं। जैसे एक हजार स्निग्ध या रूक्ष गुणके अंशोंसे युक्त परमाणु या स्कन्धको एक हजार दो अंशवाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु या स्कन्ध परणमाता है । इसी तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये । ॥ इति फलाधिकारः॥ इस तरह सात अधिकारों के द्वारा छह द्रव्योंका वर्णन करके अब पंचास्तिकायका वर्णन करते हैं। दवं छक्कमकालं पंचत्थीकायसण्णिदं होदि । काले पदेसपचयो जम्हा णस्थिति णिद्दिढं ॥ ६१९ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy