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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । संज्ञाओंका अन्तर्भाव किस प्रकार होता है सो दिखाते हैं । मायालोहे रदिपुवाहारं कोहमाणगझि भयं । वेदे मेहुणसण्णा लोहसि परिग्गहे सण्णा ॥६॥ मायालोभयो रतिपूर्वकमाहारं क्रोधमानकयोर्भयम् । __ वेदे मैथुनसंज्ञा लोभे परिग्रहे संज्ञा ॥ ६॥ अर्थ-रतिपूर्वक आहार अर्थात् आहारसंज्ञा रागविशेष होनेसे रागका खरूपही है और माया तथा लोभकषाय दोनोंही खरूपवान् हैं इसलिये खरूपखरूपवत्सम्बन्धकी अपेक्षा माया और लोभकषायमें आहारसंज्ञाका अन्तर्भाव होता है । इसीप्रकार ( खरूपस्वरूपवत्सम्बन्धकी अपेक्षा) क्रोध तथा मानकषायमें भयसंज्ञाका अन्तर्भाव होता है। कार्यकारणसम्बन्धकी अपेक्षा वेदकषायमें मैथुनसंज्ञाका और लोभकषायमें परिग्रहसंज्ञाका अन्तर्भाव होता है। क्योंकि वेदकषाय तथा लोभकषाय कारण हैं और मैथुनसंज्ञा तथा परिग्रहसंज्ञा कार्य हैं। उपयोगका अन्तर्भाव दिखाने के लिये सूत्र करते हैं । सागारो उबजोगो णाणे मग्गलि दंसणे मग्गे । अणगारो उबजोगो लीणोत्ति जिणेहिं णिदिदं ॥ ७॥ साकार उपयोगो ज्ञानमार्गणायां दर्शनमार्गणायाम् । अनाकार उपयोगो लीन इति जिननिर्दिष्टम् ॥ ७ ॥ अर्थ-उपयोग दो प्रकारका होता है एक साकार दूसरा अनाकार । साकार उपयोग उसको कहते हैं जिसमें पदार्थ 'यह घट है, यह पट है' इत्यादि विशेषरूपसे प्रतिभासित हों, इसीको ज्ञान कहते हैं इसलिये इसका ज्ञानमार्गणामें अन्तर्भाव होता है । जिसमें कोई भी विशेष पदार्थ प्रतिभासित न होकर केवल महासत्ताही विषय हो उसको अनाकार उपयोग तथा दर्शन कहते हैं इसका दर्शनमार्गणामें अन्तर्भाव होता है। __ यद्यपि यहांपर ऊपर सब जगह अभेद विवक्षासे दो ही प्ररूपणाओंमें शेष प्ररूपणाओंका अन्तर्भाव दिखलादिया है तथापि आगे प्रत्येक प्ररूपणाका निरूपण भेदविवक्षासे ही करेंगे। प्रतिज्ञाके अनुसार प्रथम क्रमप्राप्त गुणस्थानका सामान्य लक्षण करते हैं । जेहिं दु लक्खिजंते उदयादिसु संभवेहिं भावहिं। जीवा ते गुणसण्णा णिहिट्ठा सबदरसीहिं ॥ ८॥ । यैस्तु लक्ष्यन्ते उदयादिषु सम्भवैर्भावैः। जीवास्ते गुणसंज्ञा निर्दिष्टाः सर्वदर्शिभिः ॥ ८ ॥ अर्थ-दर्शनमोहनीयादि कर्मोकी उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाके For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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