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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १९८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । असंख्यात भागोंमेंसे एक भागको छोड़कर शेष बहु भागप्रमाण स्पर्श है । लोकपूर्ण समुद्वातमें सर्वलोकप्रमाण स्पर्श है । भावार्थ — केवलसमुद्वातके चार भेद हैं । दण्ड पा प्रतर लोकपूर्ण । दण्ड समुद्वातके भी दो भेद हैं, एक स्थित दूसरा उपविष्ट | और स्थित तथा उपविष्टके भी आरोहक अवरोहककी अपेक्षा दो २ भेद हैं । कपाट समुद्वात के चार भेद हैं पूर्वाभिमुख स्थित उत्तराभिमुख स्थित पूर्वाभिमुख - उपविष्ट उत्तराभिमुख - उपविष्ट । इन चारमेंसे प्रत्येकके आरोहक अवरोहककी अपेक्षा दो २ भेद हैं । तथा प्रतर लोकपूका एक २ ही भेद है । यहां पर जो दण्ड और कपाट समुद्धातका स्पर्श बताया है वह आरोहक और अवरोहककी अपेक्षा दो भेदों में से एक ही भेद का है, क्योंकि एक जीव समुद्वात अवस्था में जितने क्षेत्रका आरोहण अवस्था में स्पर्श करता है उतने ही क्षेत्रका अवरोहण अवस्था में भी स्पर्श करता है । इस लिये यदि आरोहण अवरोहण दोनों अवस्थाओंका सामान्य स्पर्श जानना हो तो दण्ड और कपाट दोनों ही का उक्त प्रमाणसे दूना २ स्पर्श समझना चाहिये । प्रतर समुद्वातमें लोकके असंख्यातमे भागप्रमाण वातवलयका स्थान छूट जाता है इसलिये यहां पर लोकके असंख्यात भागों में से एक भागको छोड़कर शेष बहुभागप्रमाण स्पर्श है । ॥ इति स्पर्शाधिकारः ॥ क्रमप्राप्त कालाधिकारका वर्णन करते हैं । कालो छलेस्साणं णाणाजीवं पडुच्च सङ्घद्धा | अंतोमुहुत्तमवरं एवं जीवं पहुच हवे ॥ ५५० ॥ कालः षड्लेश्यानां नानाजीवं प्रतीत्य सर्वार्द्धा । अन्तर्मुहूर्तोवर एकं जीवं प्रतीत्य भवेत् ।। ५५० ॥ अर्थ-नाना जीवोंकी अपेक्षा कृष्ण आदि छहों लेश्याओंका सर्व काल है । तथा एक जीव अपेक्षा सम्पूर्ण लेश्याओंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है । उवहीणं तेत्तीस सत्तर सत्तेव होंति दो चेष | अट्ठारस तेत्तीस उकस्सा होंति अदिरेया ॥ ५५१ ॥ उदधीनां त्रयस्त्रिंशत् सप्तदश सप्तैव भवन्ति द्वौ चैव I अष्टादश त्रयस्त्रिंशत् उत्कृष्टा भवन्ति अतिरेकाः ।। ५५१ ।। अर्थ — उत्कृष्ट काल कृष्णलेश्याका तेतीस सागर, नीललेश्याका सत्रह सागर, कापोतलेश्याका सातसागर, पीतलेश्याका दो सागर, पद्म लेश्याका अठारह सागर, शुक्ल लेश्याका तेतीस सागर से कुछ अधिक है । भावार्थ — यह अधिकका सम्बन्ध छहों लेश्याओंके उत्कृष्ट कालके साथ २ करना चाहिये; क्योंकि यह उत्कृष्ट कालका वर्णन देव और नार For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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