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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। १९५ स्वस्थानसमुद्धाते उपपादे सर्वलोकमशुभानाम् । लोकस्यासंख्येयभागं क्षेत्रं तु तेजस्त्रिके ॥ ५४२ ॥ अर्थ-तीन अशुभलेश्याओंका सामान्यसे खस्थान तथा समुद्धात और उपपादकी अपेक्षा सर्वलोकप्रमाण क्षेत्र है । और तीन शुभ लेश्याओंका क्षेत्र लोकप्रमाणके असंख्यातमे भागमात्र है। भावार्थ-यह सामान्यसे कथन किया है; किन्तु लेश्याओंके क्षेत्रका विशेष वर्णन, स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान सात प्रकारका समुद्धात, एक प्रकारका उपपाद इस तरह दश कारणोंकी अपेक्षासे किया है । सो विशेषजिज्ञासुओंको वह बड़ी टीकामें देखना चाहिये। उपपादक्षेत्रके निकालनेके लिये सूत्र कहते हैं । मरदि असंखेजदिमं तस्सासंखा य विग्गहे होंति । तस्सासंखं दूरे उववादे तस्स खु असंखं ॥ ५४३ ॥ म्रियते असंख्येयं तस्यासंख्याश्च विग्रहे भवन्ति । तस्यासंख्यं दूरे उपपादे तस्य खलु असंख्यम् ॥ ५४३ ॥ अर्थ-घनाङ्गुलके तृतीय वर्गमूलका जगच्छ्रेणीसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने सौधर्म और ईशान वर्गके जीवोंका प्रमाण है । इसमें पल्यके असंख्यातमे भागका भाग देनेसे एक भागप्रमाण प्रतिसमय मरनेवाले जीव हैं । मरनेवाले जीवोंके प्रमाणमें पल्यके असंख्यातमे भागका भाग देनेसे जो बहुभागका प्रमाण हो उतने विग्रहगति करनेवाले जीव हैं । विग्रहगतिवाले जीवों के प्रमाणमें पल्यके असंख्यातमे भागका भाग देनेसे जो बहुभागका प्रमाण हो उतने मारणान्तिक समुद्धातवाले जीव हैं। इसमें भी पत्यके असं. ख्यातमे भागका भाग देनेसे लब्ध एक भाग प्रमाण दूर मारणान्तिक समुद्धातवाले जीव हैं । इसमें भी पल्यके असंख्यातमे भागका भाग देनेसे लब्ध एक भागप्रमाण उपपाद जीव हैं । यहां पर तिर्यंचोंकी उत्पत्तिकी अपेक्षासे एक जीवसम्बन्धी प्रदेश फैलनेकी अपेक्षा डेढ़ राजू लम्बा संख्यात सूच्यंगुलप्रमाण चौड़ा वा ऊंचा क्षेत्र है, इसके घन-क्षेत्रफलको उपपाद जीवों के प्रमाणसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना ही उपपाद क्षेत्रका प्रमाण है । भावार्थ-जिस स्थानवाले जीवोंका क्षेत्र निकालना हो उस स्थानवाले जीवोंकी संख्याका अपनी २ एक जीवसम्बन्धी अवगाहनाप्रमाणसे अथवा जहां तक एक जीव गमन कर सकता है उस क्षेत्रप्रमाणसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो सामान्यसे उतना ही उनका क्षेत्र कहा जाता है। यहांपर पीतलेश्यासम्बन्धी क्षेत्र का प्रमाण बताया है । पद्म लेश्यामें तथा शुक्ल लेश्यमें भी क्षेत्रका प्रमाण इस ही प्रकारसे होता है कुछ विशेषता है सो बड़ी टीकासे देखना। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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