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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गोम्मटसारः । शुक्कलेश्यावाले के लक्षण बताते हैं । क्रमप्राप्त गति अधिकारका वर्णन करते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir णय कुणइ पक्खवायं णवि य णिदाणं समो य सधेसिं । णत्थि य रायोसा होवि य सुक्कलेस्सस्स ॥ ५१६ ॥ न च करोति पक्षपातं नापि च निदानं समश्च सर्वेषाम् । नास्ति च रागद्वेषौ स्नेहोऽपि च शुकुलेश्यस्य ॥ ५१६ ॥ अर्थ — पक्षपात न करना, निदानको न बांधना, सब जीवोंमें समदर्शी होना, इष्टसे राग और अनिष्टसे द्वेष न करना, स्त्री पुत्र मित्र आदिमें स्नेहरहित होना, ये सब शुक्लले - श्यावाके लक्षण हैं | लेस्साणं खलु अंसा छवीसा होंति तत्थ मज्झिमया । आउगवंधणजोगा अट्ठवगरिसकालभवा ॥ ५१७ ॥ १८५ For Private And Personal लेश्यानां खलु अंशाः षडूविंशतिः भवन्ति तत्र मध्यमकाः । आयुष्कबन्धनंयोग्या अष्ट अष्टापकर्षकालभवाः ।। ५१७ ॥ 1 अर्थ — लेश्याओंके कुल छव्वीस अंश हैं, इनमें से मध्यके आठ अंश जो कि आठ अपकर्ष काल में होते हैं वे ही आयुकर्मके बन्धके योग्य होते हैं । भावार्थ — जैसे किसी कर्मभूमिया मनुष्य या तिर्थचकी भुज्यमान आयुका प्रमाण छह हजार इकसठ है । इसके तीन भागमेंसे दो भाग वीतने पर और एक भाग शेष रहने पर, इस एक भागके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त प्रथम अपकर्षका काल कहा जाता है । इस अपकर्ष कालमें परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध होता है । यदि यहां पर भी बन्ध न हो तो अवशिष्ट एक त्रितीय भागमेंसे भी दो भाग वीतने पर और एक भाग शेष रहने पर प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त द्वितीय अपकर्ष काल में परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध होता है । यदि यहां पर भी बंध न हो तो तीसरे अपकर्ष में होता है । और तीसरे में भी न हो तो चौथे पांचमे छट्ठे सातमे आठमे अपकर्षमें से किसी भी अपकर्ष में परभवस - म्बन्धी आयुका बन्ध होता है । यदि किसी भी अपकर्षमें बन्ध न हो तो असंक्षेपाद्धा ( भुज्यमान आयुका अन्तिम आवलीके असंख्यात मे भागप्रमाण काल ) से पूर्व के अन्तर्मु - हूर्तमें अवश्य ही आयुका बन्ध होता है । भुज्यमान आयुके तीन भागोंमेंसे दो भाग वीतने पर अवशिष्ट एक भाग के प्रथम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कालको अपकर्ष कहते हैं । इस अपकर्ष कालमें लेश्याओंके आठ मध्यमाशोंमेंसे जो अंश होगा उसके अनुसार आयुका बन्ध होगा । तथा आयुबन्धके योग्य आठ मध्यमाशों में से कोई अंश जिस अपकर्ष में होगा उस ही अपकर्ष में आयुका बन्ध होगा, दूसरे कालमें नहीं । गो. २४
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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