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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। १८१ भावार्थ-कृष्णलेश्या अशुभलेश्या है, इस लिये उसमें यदि संक्लेशताकी वृद्धि होगी तो कृष्णलेश्याके उत्कृष्ट अंशपर्यन्त ही होगी। तथा शुक्ललेश्या शुभलेश्या है इस लिये शुक्ललेश्यामें यदि शुभपरिणामोंकी वृद्धि होगी तो शुक्ललेश्याके उत्कृष्ट अंशपर्यन्त ही होगी इस लिये वृद्धिकी अपेक्षा कृष्ण और शुक्ललेश्यामें स्वस्थानसंक्रमण ही है । तथा कृष्णलेश्यामें संक्लेशताकी यदि हानी हो तो कृष्णलेश्याके जघन्य अंशपर्यन्त भी होसकती है, और इसके नीचे नील कापोत लेश्यारूप भी होसकती है, इसलिये कृष्णलेश्यामें हानिकी अपेक्षा दोनों संक्रमण संभव हैं । इस ही तरह शुक्ललेश्यामें यदि विशुद्धताकी हानि होय तो शुक्ललेश्याके जघन्य अंशपर्यन्त भी होसकती है, और उसके नीचे पद्म पीत लेश्यारूप भी होसकती है, इसलिये इसमें भी हानिकी अपेक्षा दोनों संक्रमण सम्भव हैं । किन्तु मध्यकी चारलेश्याओंमेंसे अशुभलेश्याओंमें संक्लेशताकी हानि हो या वृद्धि हो दो प्रकारके संक्रमणों में से कोई भी संक्रमण होसकता है । तथा शुभलेश्याओंमें विशुद्धताकी हानि हो या वृद्धि हो दो प्रकारके संक्रमणोंमेंसे कोई भी संक्रमण हो सकता है । जैसे पद्मलेश्यामें यदि विशुद्धताकी वृद्धि हुई तो वह पद्मलेश्याके उत्कृष्ट अंशपर्यन्त भी हो सकती है इसलिये खस्थानसंक्रमण, और शुक्ललेश्यारूप भी परिणाम होसकता है इसलिये परस्थान संक्रमण भी सम्भव है । इसीप्रकार पीत तथा नील और कापोतलेश्यामें भी समझना चाहिये। लेस्साणुकस्सादोवरहाणी अवरगादवरवड्डी। सट्टाणे अवरादोहाणी णियमा परहाणे ॥ ५०४ ॥ लेश्यानामुत्कृष्टादवरहानिः अवरकादवरवृद्धिः । स्वस्थाने अवरात् हानिर्नियमात् परस्थाने ॥ ५०४ ॥ अर्थ-वस्थानकी अपेक्षा लेश्याओंके उत्कृष्टस्थानके समीपवर्ती स्थानका परिणाम उत्कृष्ट स्थानके परिणामसे अनंतभागहानिरूप है । तथा खस्थानकी अपेक्षासे ही जघन्यस्थानके समीपवर्ती स्थानका परिणाम जघन्य स्थानसे अनन्तभागवृद्धिरूप है । सम्पूर्ण लेश्याओंके जघन्य स्थानसे यदि हानि हो तो नियमसे अनन्तगुणहानिरूप परस्थान संक्रमण ही होता है । भावार्थ-किसी विवक्षित लेश्याके जघन्य स्थानसे हानि होकर उसके समीपवर्ती लेश्याके उत्कृष्ट स्थानरूप यदि परिणाम हो तो वहांपर परस्थान संक्रमण ही होता है, और यह स्थान अनन्तगुणहानिरूप होता है । जैसे कृष्णलेश्याके जघन्यस्थानके समीप नीललेश्याका उत्कृष्ट स्थान है, वह कृष्णलेश्याके जघन्यस्थानसे अनन्तगुणहानिरूप है । उपर्युक्त निरूपणका कारण क्या है ? यह बताते हैं । संकमणे छट्ठाणा हाणिसु वड्डीसु होंति तण्णामा । परिमाणं च य पुवं उत्तकम होदि सुदणाणे ॥५०५॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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