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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । उपशान्ते क्षीणे वा अशुभे कर्मणि मोहनीये । छद्मस्थो वा जिनो वा यथाख्यातः संयतः स तु ॥ ४७४ ॥ अर्थ-अशुभरूप मोहनीय कर्मके सर्वथा उपशम होजानेसे ग्यारहमे गुणस्थानवर्ती जीवोंके, और सर्वथा क्षीण होजानेसे बारहमे गुणस्थानवर्ती जीवोंके, तथा तेरहमे चौदहमे गुणस्थानवालोंके यथाख्यात संयम होता है । भावार्थ-यथावस्थित आत्मखभावकी उपलब्धिको यथाख्यात संयम कहते हैं । यह संयम ग्यारहमेसे लेकर चौदहमे तक चार गुणस्थानोंमें होता है । ग्यारहमेमें चारित्र-मोहनीय कर्मके उपशमसे और ऊपरके तीन गुणस्थानों में क्षयसे यह संयम होता है। दो गाथाओंद्वारा देशविरतका निरूपण करते हैं। पंचतिहिचहुविहेहिं य अणुगुणसिक्खावयहिं संजुत्ता। उच्चंति देसविरया सम्माइट्टी झलियकम्मा ॥ ४७५ ॥ पञ्चत्रिचतुर्विधैश्च अणुगुणशिक्षाव्रतैः संयुक्ताः । उच्यन्ते देशविरताः सम्यग्दृष्टयः झरिसकर्माणः ॥ ४७५॥ अर्थ-जो सम्यग्दृष्टी जीव पांच अणुव्रत तीन गुणत्रत चार शिक्षात्रतसे युक्त हैं उनको देशविरत अथवा संयमासंयमी कहते हैं। इस देश संयनके द्वारा जीवोंके असंख्यातगुणी कर्मोंकी निर्जरा होती है। देशसंयमीके ग्यारह भेदोंको गिनाते हैं। दंसणवयसामाइय पोसहसचित्तरायभत्ते य । वम्हारंभपरिग्गह अणुमणमुच्छिट्ठदेसविरदेदे ॥ ४७६ ॥ दर्शनव्रतसामायिकाः प्रोषधर चित्तरात्रिभक्ताश्च । ब्रह्मारम्भपरिग्रहानुमतोद्दिष्टदेशविरता एते ॥ ४७६ ।। अर्थ-दर्शनिक, बतिक, सामायिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत्न, रात्रिभुक्तिविरत, ब्रह्मचारी, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत, उद्दिष्टविरत ये देशविरत ( पांचमे गुणस्थान ) के ग्यारह भेद हैं। असंयतका स्वरूप बताते हैं। जीवा चोदसभेया इंदियविसया तहट्ठवीसं तु । जे तेसु णेव विरया असंजदा ते मुणेदवा ॥ ४७७ ॥ जीवाश्चतुर्दशभेदा इन्द्रियविषयाः तथाष्टाविंशतिस्तु । ये तेषु नैव विरता असंयताः ते मन्तव्याः ॥ ४७७ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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