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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १६९ गोम्मटसारः। ॥ अथ संयममार्गणाधिकारः। वदसमिदिकसायाणं दंडाण तहिंदियाण पंचण्हं । धारणपालणणिग्गहचागजओ संजमो भणिओ ॥ ४६४ ॥ व्रतसमितिकषायाणां दण्डानां तथेन्द्रियाणां पञ्चानाम् । ___धारणपालननिग्रहत्यागजयः संयमो भणितः ॥ ४६४ ॥ अर्थ-अहिंसा अचौर्य सत्य शील (ब्रह्मचर्य ) अपरिग्रह इन पांच महाव्रतोंका धारण करना, इर्या भाषा एषणा आदाननिक्षेण उत्सर्ग इन पांच समितियोंका पालना, चारप्रकारकी कषायोंका निग्रह करना, मन वचन काय रूप दण्डका त्याग, तथा पांच इन्द्रियोंका जय, इसको संयम कहते हैं । अतएव संयमके पांच भेद हैं। संयमकी उत्पत्तिका कारण बताते हैं। बादरसंजलणुदये सुहुमुदये समखये य मोहस्स । संजमभावो णियमा होदित्ति जिणेहिं णिहिटं ॥ ४६५ ॥ बादरसंज्वलनोदये सूक्ष्मोदये शमक्षययोश्च मोहस्य । संयमभावो नियमात् भवतीति जिनैर्निर्दिष्टम् ॥ ४६५ ॥ अर्थ-बादर संज्वलनके उदयसे अथवा सूक्ष्मलोभके उदयसे और मोहनीय कर्मके उपशमसे अथवा क्षयसे नियमसे संयमरूप भाव उत्पन्न होते हैं ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। इसी अर्थको दो गाथाओं द्वारा स्पष्ट करते हैं। बादरसंजलणुदये वादरसंजमतियं खु परिहारो। पमदिदरे सुहुमुदये सुहुमो संजमगुणो होदि ॥ ४६६ ॥ बादरसंज्वलनोदये बादरसंयमत्रिकं खलु परिहारः। प्रमत्तेतरस्मिन् सूक्ष्मोदये सूक्ष्मः संयमगुणो भवति ॥ ४६६ ॥ अर्थ-जो संयमके विरोधी नहीं हैं ऐसे बादर संज्वलन कषायके देशघाति स्पर्धकोंके उदयसे सामायिक छेदोपस्थापना परिहारविशुद्धि ये तीन चारित्र होते हैं । इनमेंसे परिहारविशुद्धि संयम तो प्रमत्त और अप्रमत्तमें ही होता है, किन्तु सामायिक और छेदोपस्थापना प्रमत्तादि अनिवृत्तिकरणपर्यन्त होते हैं । सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त संज्वलन लोभके उदयसे सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवर्ती संयम होता है। जहखादसंजमो पुण उवसमदो होदि मोहणीयस्स । खयदो वि य सो णियमा होदित्ति जिणेहिं णिद्दिटं ॥ ४६७ ॥ यथाख्यातसंयमः पुनः उपशमतो भवति मोहनीयस्य । क्षयतोऽपि च स नियमात् भवतीति जिननिर्दिष्टम् ॥ ४६७ ॥ गो. २२ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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