SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । मनःपर्यय ज्ञान का खामी बताते हैं। मणपज्जवं च णाणं सत्तसु विरदेसु सत्तइड्ढीणं । एगादिजुदेसु हवे वहुंतविसिट्टचरणेसु ॥ ४४४ ॥ मनःपर्ययश्च ज्ञानं सप्तसु विरतेषु सप्तर्धीनाम् । एकादियुतेषु भवेत् वर्धमानविशिष्टाचरणेषु ॥ ४४४ ॥ अर्थ-प्रमत्तादि क्षीणकषायपर्यन्त सात गुणस्थानोंमेंसे किसी एक गुणस्थानवालेके, इस पर भी सात ऋद्धियोंमेंसे किसी एक ऋद्धिको धारण करनेवालेके, ऋद्धिप्राप्तमें भी वर्धमान तथा विशिष्ट चारित्रको धारणकरनेवालोंके ही यह मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न होता है। इंदियणोइंदियजोगादिं पेक्खित्तु उजुमदी होदि । णिरवेक्खिय विउलमदी ओहिं वा होदि णियमेण ॥ ४४५॥ इन्द्रियनोइन्द्रिययोगादिमपेक्ष्य ऋजुमतिर्भवति । __ निरपेक्ष्य विपुलमतिः अवधिर्वा भवति नियमेन ॥ ४४५ ॥ अर्थ-अपने तथा परके स्पर्शनादि इन्द्रिय और मन तथा मनोयोग काययोग वचनयोगकी अपेक्षासे ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न होता है । अर्थात् वर्तमानमें विचारप्राप्तस्पर्शनादिके विषयोंको ऋजुमति जानता है। किन्तु विपुलमति अवधिकी तरह इनकी अपेक्षाके विना ही नियमसे होता है । पडिवादी पुण पढमा अप्पडिवादी हु होदि विदिया हु। सुद्धो पढमो बोहो सुद्धतरो विदियबोहो दु॥ ४४६ ॥ प्रतिपाती पुनः प्रथमः अप्रतिपाती हि भवति द्वितीयो हि। शुद्धः प्रथमो बोधः शुद्धतरो द्वितीयबोधस्तु ॥ ४४६॥ अर्थ-ऋजुमति प्रतिपाती है; क्योंकि ऋजुमतिवाला उपशमक तथा क्षपक दोनों श्रेणियोंपर चढ़ता है। उसमें यद्यपि क्षपककी अपेक्षा ऋजुमतिवालेका पतन नहीं होता, तथापि उपशम श्रेणीकी अपेक्षा पतन सम्भव है । विपुलमति सर्वथा अप्रतिपाती है । तथा ऋजुमति शुद्ध है, और विपुलमति इससे भी शुद्ध होता है । परमणसिट्ठियमढें ईहामदिणा उजुट्ठियं लहिय । पच्छा पञ्चक्खेण य उजुमदिणा जाणदे णियमा ॥४४७ ॥ परमनसिस्थितमर्थमीहामत्या ऋजुस्थितं लब्ध्वा । पश्चात् प्रत्यक्षेण च ऋजुमतिना जानीते नियमात् ॥ ४४७॥ अर्थ-ऋजुमतिवाला दूसरेके मनमें सरलताके साथ स्थित पदार्थको पहले ईहामतिज्ञानके द्वारा जानता है, पीछे प्रत्यक्ष रूपसे नियमसे ऋजुमति ज्ञानके द्वारा जानता है। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy