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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । कप्पसुराणं सगसगओहीखेत्तं विविस्ससोबचयं । ओहीदवपमाणं संठाविय धुवहरेण हरे ॥ ४३२ ॥ सगसगखेत्तपदेससलायपमाणं समप्पदे जाय । तत्थतणचरिमखंडं तत्थतणोहिस्स दवं तु ॥ ४३३ ॥ कल्पसुराणां स्वकस्वकावधिक्षेत्रं विविस्रसोपचयम् । अवधिद्रव्यप्रमाणं संस्थाप्य ध्रुवहरेण हरेत् ॥ ४३२ ॥ खकस्वकक्षेत्रप्रदेशशलाकाप्रमाणं समाप्यते यावत् । तत्रतनचरमखण्डं तत्रतनावधेर्द्रव्यं तु ॥ ४३३ ॥ अर्थ-कल्पवासी देवोंमें अपनी २ अवधिके क्षेत्रका जितना २ प्रमाण है उसका एक जगह स्थापन कर, और दूसरी जगह विस्रसोपचयरहित अवधिज्ञानावरण कर्मरूप द्रव्यका स्थापन कर, द्रव्यप्रमाणमें ध्रुवहारका भाग देना चाहिये और प्रदेशप्रमाणमें एक कम करना चाहिये । द्रव्यप्रमाणमें ध्रुवहारका एकवार भाग देनेसे लब्ध द्रव्यप्रमाणमें दूसरीवार ध्रुवहारका भाग देना चाहिये और प्रदेशप्रचयमें एक और कम करना चाहिये । दूसरी वार भाग देनेसे लब्ध द्रव्यप्रमाणमें तीसरी वार ध्रुवहारका भाग देना चाहिये और प्रदेशप्रचयमें तीसरी वार एक कम करना चाहिये । इस प्रकार उत्तरोत्तर लब्ध द्रव्यप्रमाणमें ध्रुवहारका भाग, एक २ प्रदेश कम करते २ जब सम्पूर्ण प्रदेशप्रचयरूप शलाका राशि समाप्त होजाय वहां तक देना चाहिये । इसतरह प्रदेशप्रचयमें एक २ प्रदेश कम करते २ और द्रव्यप्रमाणमें ध्रुवहारका भाग देते २ जहां पर प्रदेशप्रचय समाप्त हो वहां पर द्रव्यका जो स्कन्ध शेष रहे उतने स्कन्धको अवधिके द्वारा वे कल्पवासी देव जानते हैं कि जिनकी अवधिके विषयभूत क्षेत्रका प्रदेशप्रचय विवक्षित हो । भावार्थ-जैसे सौधर्म और ईशानकल्पवासी देवोंका क्षेत्र प्रथम नरक पर्यंत है । ईशान कल्पके ऊपरके भागसे प्रथम नरक डेढ़ राजू है । इसलिये एक राजू लम्बे चौड़े और डेढ़ राजू ऊंचे क्षेत्रके जितने प्रदेश हों उनको एक जगह रखना, और दूसरी जगह अवधि ज्ञानावरण कर्मके द्रव्यका स्थापन करना। द्रव्यप्रमाणमें एक वार ध्रुवहारका भागदेना और प्रदेशप्रमाणमेसे एक कम करना, इस पहली वार ध्रुवहारका भाग देनेसे जो लब्ध आया उस द्रव्यप्रमाणमें दूसरीवार ध्रुवहारका भाग देना और प्रदेशप्रमाणमेंसे दूसरा एक और कम करना । इस तरह प्रदेशप्रमाणमें से एक २ कम करते २ तथा उत्तरोत्तर लब्ध द्रव्यप्रमाणमें ध्रुवहारका भाग देते २ प्रदेशप्रचय समाप्त होनेपर द्रव्यका जो परिमाण शेष रहे उतने परमाणुओंके सूक्ष्म पुद्गलस्कन्धको सौधर्म और ईशान कल्पवासी देव अवधिके द्वारा जानते हैं। इससे स्थूलको तो जानते ही हैं । किन्तु इससे सूक्ष्मको नहीं जानते । इस ही तरह आगे भी समझना। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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