SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। १५३ उत्कृष्ट देशावधिके विषयभूत द्रव्य क्षेत्र काल भावका प्रमाण बताते हैं। कम्मइयवग्गणं धुवहारेणिगिवारभाजिदे दवं । उकस्सं खेत्तं पुण लोगो संपुषणओ होदि ॥ ४०९॥ कार्मणवर्गणां ध्रुवहारेणैकवारभाजिते द्रव्यम् । उत्कृष्टं क्षेत्रं पुनः लोकः संपूर्णो भवति ॥ ४०९ ॥ - अर्थ-कार्मण वर्गणामें एकवार ध्रुवहारका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना देशावधिके उत्कृष्ट द्रव्यका प्रमाण है । तथा सम्पूर्ण लोक उत्कृष्ट क्षेत्रका प्रमाण है । पल्लसमऊण काले भावेण असंखलोगमेत्ता हु। दवस्स य पजाया वरदेसोहिस्स विसया हु ॥ ४१० ॥ पल्यं समयोनं काले भावेनासंख्यलोकमात्रा हि। द्रव्यस्य च पर्याया वरदेशावधेर्विषया हि ॥ ४१० ॥ अर्थ-कालकी अपेक्षा एक समय कम एक पल्य, और भावकी अपेक्षा असंख्यातलोकप्रमाण द्रव्यकी पर्याय उत्कृष्ट देशावधिका विषय है । भावार्थ-काल और भाव शब्दके द्वारा द्रव्यकी पर्यायोंका ग्रहण किया जाता है। इसलिये कालकी अपेक्षा एक समय कम पल्य-प्रमाण और भावकी अपेक्षा असंख्यातलोकप्रमाण द्रव्यकी पर्यायोंको उत्कृष्ट देशावधि ज्ञान विषय करता है। काले चउण्ण उड्डी कालो भजिदव खेत्तउड्डी य । उड्डीए दवपजय भजिदवा खेत्तकाला हु॥ ४११ ॥ काले चतुण्णों वृद्धिः कालो भजितव्यः क्षेत्रवृद्धिश्च । वृद्ध्या द्रव्यपर्याययोः भजितव्यौ क्षेत्रकालौ हि ॥ ४११ ॥ अर्थ-कालकी वृद्धि होने पर चारो प्रकारकी वृद्धि होती है । क्षेत्रकी वृद्धि होने पर कालकी वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती है । इस ही तरह द्रव्य और भावकी अपेक्षा वृद्धि होने पर क्षेत्र और कालकी वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती है । परन्तु क्षेत्र और कालकी वृद्धि होने पर द्रव्य और भावकी वृद्धि अवश्य होती है। देशावधिका निरूपण समाप्त हुआ, अतः क्रमप्राप्त परमावधिका निरूपण करते हैं। देसावहिवरदवं धुवहारेणवहिदे हवे णियमा । परमावहिस्स अवरं दवपमाणं तु जिणदिट्ठम् ॥ ४१२ ॥ देशावधिवरद्रव्यं ध्रुवहारेणावहिते भवेत् नियमात् । परमाधेरवरं द्रव्यप्रमाणं तु जिनदिष्टम् ॥ ४१२ ॥ गो. २० For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy