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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । धिके भेदोंमें दो मिलानेसे जो प्रमाण हो उतनी जगह ध्रुवहार रखकर परस्पर गुणा करनेसे लब्धराशिप्रमाण कार्मण वर्गणाका प्रमाण होता है। परमावधिके कितने भेद हैं यह बताते हैं । परमावहिस्स भेदा सगओगाहणवियप्पहदतेऊ । इदि धुवहारं वग्गणगुणगारं वग्गणं जाणे ॥ ३९२ ॥ परमावधेर्भेदाः स्वकावगाहनविकल्पहततेजसः। इति ध्रुवहारं वर्गणागुणकारं वर्गणां जानीहि ॥ ३९२ ॥ अर्थ-तेजस्कायिक जीवोंकी अवगाहनाके जितने विकल्प हैं उसका और तेजस्कायिक जीवराशिका परस्पर गुणा करनेसे जो राशि लब्ध आवे उतना ही परमावधि ज्ञानके द्रव्यकी अपेक्षासे भेदोंका प्रमाण होता है । इस प्रकार ध्रुवहार, वर्गाणाका गुणकार, और वर्गणाका स्वरूप समझना चाहिये। देसोहिअवरदवं धुवहारेणवहिदे हवे विदियं । तदियादिवियप्पेसु वि असंखवारोत्ति एस कमो ॥ ३९३ ॥ देशावध्यवरद्रव्यं ध्रुवहारेणावहिते भवेत् द्वितीयम् । तृतीयादिविकल्पेष्वपि असंख्यवार इत्येषः क्रमः ॥ ३९३ ॥ अर्थ-देशावधि ज्ञानके जघन्य द्रव्यका जो प्रमाण पहले बताया है उसमें ध्रुवहारका एक वार भाग देनेसे देशावधिके दूसरे विकल्पके द्रव्यका प्रमाण निकलता है । दूसरे विकल्पके द्रव्यमें ध्रुवहारका एक वार भाग देनेसे तीसरे विकल्पके द्रव्यका और तीसरे विकल्पके द्रव्यमें ध्रुवहारका भाग देनेसे चौथे विकल्पके द्रव्यका प्रमाण निकलता है। इसी तरह आगेके विकल्पोंके द्रव्यका प्रमाण निकालनेकेलिये क्रमसे असंख्यात वार ध्रुवहारका भाग देना चाहिये। देसोहिमज्झभेदे सविस्ससोवचयतेजकम्मंगं । तेजोभासमणाणं वग्गणयं केवलं जत्थ ॥ ३९४ ॥ पस्सदि ओही तत्थ असंखेजाओ हवंति दीउवही । वासाणि असंखेजा होति असंखेजगुणिदकमा ॥ ३९५ ॥ दशावधिमध्येभेदे सविस्रसोपचयतेजःकर्माङ्गम् । तेजोभाषामनसां वर्गणां केवलां यत्र ॥ ३९४ ॥ पश्यत्यवधिस्तत्र असंख्यया भवन्ति द्वीपोदधयः । वर्षाणि असंख्यातानि भवन्ति असंख्यातगुणितक्रमाणि ॥ ३९५ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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