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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । गुणप्रत्ययकः षोढा अनुगावस्थितप्रवर्धमानेतरे । देशावधिः परमावधिः सर्वावधिरिति च त्रिधा अवधिः ॥ ३७१ ॥ अर्थ-गुणप्रत्यय अवधिज्ञानके छह भेद हैं, अनुगामी अननुगामी अवस्थित अनवस्थित वर्धमान हीयमान । तथा सामान्यसे अवधिज्ञानके देशावधि परमावधि सर्वावधि इसतरहसे तीन भेद भी होते हैं । भावार्थ-जो अवधिज्ञान अपने खामी जीवके साथ जाय उसको अनुगामी कहते हैं । इसके तीन भेद हैं, क्षेत्रानुगामी भवानुगामी उभयानुगामी । जो दूसरे क्षेत्रमें अपने स्वामीके साथ जाय उसको क्षेत्रानुगामी कहते हैं। जो दूसरे भवमें साथ जाय उसको भवानुगामी कहते हैं । जो दूसरे क्षेत्र तथा भव दोनोंमें साथ जाय उसको उभयानुगामी कहते हैं । जो अपने खामी जीवके साथ न जाय उसको अननुगामी कहते हैं, इसके भी तीन भेद हैं क्षेत्राननुगामी भवाननुगामी उभयाननुगामी । जो सूर्यमण्डलके समान न घटे न बढे उसको अवस्थित कहते हैं । जो चन्द्रमण्डलकी तरह कभी कम हो कभी अधिक हो उसको अनवस्थित कहते हैं । जो शुक्लपक्षके चन्द्रकी तरह अपने अन्तिम स्थानतक बढ़ता जाय उसको वर्धमान अवधि कहते हैं । जो कृष्णपक्षके चन्द्रकी तरह अन्तिम स्थानतक घटता जाय उसको हीयमान कहते हैं। भवपञ्चइगो ओही देसोही होदि परमसबोही । गुणपञ्चइगो णियमा देसोही वि य गुणे होदि ॥ ३७२ ॥ भवप्रत्ययकोऽवधिः देशावधिः भवति परमसर्वावधी। ___गुणप्रत्ययको नियमात् देशावधिरपि च गुणे भवति ।। ३७२ ॥ अर्थ-भवप्रत्यय अवधि नियमसे देशावधि ही होता है । और दर्शनविशुद्धि आदि गुणोंके निमित्तसे होनेवाला गुणप्रत्यय अवधि ज्ञान देशावधि परमावधि सर्वावधि इस तरह तीनों प्रकारका होता हैं। देसोहिस्स य अवरं णरतिरिये होदि संजदम्हि वरं । परमोही सवोही चरमसरीरस्स विरदस्स ॥ ३७३॥ देशावधेश्च अवरं नरतिरश्चोः भवति संयते वरम् ।। परमावधिः सर्वावधिः चरमशरीरस्य विरतस्य ॥ ३७३ ॥ अर्थ-जघन्य देशावधि ज्ञान संयत तथा असंयत दोनों ही प्रकारके मनुष्य तथा तिर्यचोंके होता है। उत्कृष्ट देशावधि ज्ञान संयत जीवोंके ही होता है। किन्तु परमावधि और सर्वावधि चरमशरीरी और महाव्रतीके ही होता है । पडिवादी देसोही अप्पडिवादी हवंति सेसा ओ। मिच्छत्तं अविरमणं ण य पडिवजंति चरिमदुगे ॥ ३७४ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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