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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । भेद चूलिका है, उसके पांच भेद हैं, जलगता स्थलगता मायागता आकाशगता रूपगता । इनमेंसे जलगतामें जलगमन अग्निस्तम्भन अग्निभक्षण अग्निका आसन अग्निप्रवेश आदि के मन्त्र तन्त्र तपश्चर्या आदिका वर्णन हैं । स्थलगतामें मेरु कुलाचल भूमि आदिमें प्रवेश शीघ्रगमन आदिके कारण मन्त्र तन्त्र आदिका वर्णन है । मायागता में इन्द्रजाल सम्बन्धी मन्त्रादिका वर्णन है । आकाशगता में आकाशगमन के कारण मन्त्र तत्र आदिका वर्णन है । रूपगता में सिंहादिक अनेक प्रकारके रूप बनानेके कारणभूत मन्त्रादिका वर्णन है । अङ्गबाह्य श्रुतके भेद गिनाते हैं । सामाइयचउवीसत्थयं तदो वंदना पडिक्कमणं । desi किदियम्मं दसवेयालं च उत्तरज्झयणं ॥ ३६६ ॥ कप्पववहारकप्पाकप्पियमहकप्पियं च पुंडरियं । महपुंडरीयणिसिहियमिदि चोदसमंगवाहिरयं ॥ ३६७ ॥ सामायिकचतुर्विंशस्तवं ततो वंदना प्रतिक्रमणम् । वैनयिकं कृतिकर्म दशवैकालिकं च उत्तराध्ययनम् ॥ ३६६ ॥ कल्प्यव्यवहार—कल्पाकलिप्यक - महाकल्प्यं च पुंडरीकम् । महापुंडरीकनिषिद्धिके इति चतुर्दशाङ्गबाह्यम् ॥ ३६७ ॥ अर्थ — सामायिक, चतुर्विंशस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैका - लिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकरूप्य, महाकल्प, पुंडरीक, महापुंडरीक, निषिद्धिका ये अङ्गबाह्यश्रुतके चौदह भेद हैं । श्रुतज्ञानका माहात्म्य बताते हैं । सुदकेवलं च गाणं दोण्णिवि सरिसाणि होंति बोहादो । सुदणाणं तु परोक्खं पञ्चक्खं केवलं गाणं ॥ ३६८ ॥ श्रुतकेवलं च ज्ञानं द्वेऽपि सदृशे भवतो बोधात् । श्रुतज्ञानं तु परोक्षं प्रत्यक्षं केवलं ज्ञानम् ॥ ३६८ ॥ अर्थ — ज्ञानकी अपेक्षा श्रुत ज्ञान तथा केवल ज्ञान दोनों ही सदृश हैं । परन्तु दोनों में अन्तर यही है कि श्रुत ज्ञान परोक्ष है और केवल ज्ञान प्रत्यक्ष है । भावार्थ - जिस तरह श्रुत ज्ञान सम्पूर्ण द्रव्य और उनकी पर्यायोंको जानता है उस ही तरह केवल ज्ञान भी सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायोंको जानता है । विशेषता इतनी ही है कि श्रुत ज्ञान इन्द्रिय और मनकी सहायता से होता है इसलिये इसकी अमूर्त पदार्थोंमें और उनकी अर्थपर्याय तथा दूसरे सूक्ष्म अंशो में स्पष्टरूपसे प्रवृत्ति नहीं होती । किन्तु केवल ज्ञान निरावरण होनेके कारण समस्त पदार्थों को स्पष्टरूपसे विषय करता है । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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