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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १३० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-चौदह मार्गणाओंका निरूपण करनेवाले अनुयोग ज्ञानके ऊपर पूर्वोक्त क्रमके अनुसार एक २ अक्षरकी वृद्धि होते २ जब चतुरादि अनुयोगोंकी वृद्धि होजाय तब प्राभृतप्राभृतक श्रुतज्ञान होता है । इसके पहले और अनुयोग ज्ञानके ऊपर जितने ज्ञानके विकल्प हैं वे सब अनुयोगसमासके भेद जानना। अहियारो पाहुडयं एयट्ठो पाहुडस्स अहियारो। पाहुडपाहुडणामं होदित्ति जिणेहिं णिहिटं ॥ ३४॥ अधिकारः प्राभृतमेकार्थः प्राभृतस्याधिकारः । प्राभृतप्राभृतनामा भवतीति जिनैर्निर्दिष्टम् ॥ ३४०॥ अर्थ-प्रामृत और अधिकार ये दोनों एक अर्थके वाचक हैं । अत एव प्राभृतके अधिकारको प्राभृतप्राभृत कहते हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है । भावार्थ-वस्तुनाम श्रुतज्ञानके एक अधिकारको प्राभृत और अधिकारके अधिकारको प्राभृतप्राभूत कहते हैं । प्राभृतका खरूप बताते हैं। दुगवारपाहुडादो उवरिं वण्णे कमेण चउवीसे । दुगवारपाहुडे संउढे खलु होदि पाहुडयं ॥ ३४१ ॥ द्विकवारप्राभृतादुपरि वर्णे क्रमेण चतुर्विशतौ । द्विकवारप्राभृते संवृद्धे खलु भवति प्राभृतकम् ॥ ३४१॥ अर्थ-प्राभृतप्राभृत ज्ञानके ऊपर पूर्वोक्त क्रमसे एक २ अक्षरकी वृद्धि होते २ जब चौवीस प्राभृतप्राभृतककी वृद्धि होजाय तब एक प्राभृतक श्रुत ज्ञान होता है । प्राभृतके पहले और प्राभृतप्राभृतके ऊपर जितने ज्ञानके विकल्प हैं वे सब ही प्राभृतप्राभृतसमासके भेद जानना । उत्कृष्ट प्राभृतप्राभृतसमासके भेदमें एक अक्षरकी वृद्धि होनेसे प्राभृत ज्ञान होता है। वस्तु श्रुतज्ञानका खरूप दिखाते हैं । वीसं वीसं पाहुडअहियारे एकवत्थुअहियारो। एकेकवण्णउड्डी कमेण सवत्थ णायवा ॥ ३४२ ॥ विंशतौ विंशतौ प्राभृताधिकारे एको वस्त्वधिकारः। एकैकवर्णवृद्धिः क्रमेण सर्वत्र ज्ञातव्या ॥ ३४२ ॥ अर्थ-पूर्वोक्त क्रमानुसार प्राभृत ज्ञानके ऊपर एक २ अक्षरकी वृद्धि होते २ जब क्रमसे वीस प्राभृतकी वृद्धि होजाय तब एक वस्तु अधिकार पूर्ण होता है । वस्तु ज्ञानके पहले और प्राभूत ज्ञानके ऊपर जितने विकल्प हैं वे सब प्राभृतसमास ज्ञानके भेद हैं। उत्कृष्ट प्राभृतसमासमें एक अक्षरकी वृद्धि होनेसे वस्तुनामक श्रुतज्ञान पूर्ण होता है। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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