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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । 1 तमे भागमात्र होते हैं । इसके नीचे षडंक पञ्चांक चतुरंक उवैक ये एक २ अधिकवार सूच्यंगुलके असंख्यातमे भागसे गुणित कम हैं । भावार्थ - षडंक दो वार सूच्यंगुलके असंख्यातमे भागसे गुणित है, और पञ्चांक तीन वार सूच्यंगुलके असंख्यात मे भाग से गुण है । इस ही तरह चतुरंकमें चार वार और उर्वकमें पांच बार सूच्यंगुलके असंख्यात भागका गुणाकार होता है । सम्पूर्ण षड्वृद्धियों का जोड़ बताते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir समास णियमा रूवाहियकंडयस्स वग्गस्स । बिंदस् य संवग्गो होदित्ति जिणेहिं णिद्दिहं ॥ ३२९ ॥ सर्वसमासो नियमात् रूपाधिककाण्डकस्य वर्गस्य । वृन्दस्य च संवर्गो भवतीतिजिनैर्निर्दिष्टम् ॥ ३२९॥ अर्थ – एक अधिक काण्डकके वर्ग और घनको परस्पर गुणा करनेसे जो प्रमाण लब्ध आवे उतना ही एक षट्स्थानपतित वृद्धियों के प्रमाणका जोड़ है ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है । भावार्थ – एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातमे भागको पांच जगह रख कर परस्पर गुणा करनेसे जो लब्ध आवे उतनी वार एक षट्स्थान में अनन्तभागवृद्धि आदि होते हैं उक्कस्ससंखमेतं तत्तिचउत्थेकदालछप्पण्णं । सत्तदसमं च भागं गंतूणय लद्धिअक्खरं दुगुणं ॥ ३३० ॥ उत्कृष्टसंख्यातमात्रं तत्रिचतुर्थैकचत्वारिंशत्षट्पञ्चाशम् । सप्तदशमं च भागं गत्वा लब्ध्यक्षरं द्विगुणम् ॥ ३३० ॥ अर्थ – एक अधिक काण्डकसे गुणित सूच्यंगुलके असंख्यातमे भागप्रमाण अनन्तभागवृद्धि के स्थान, और सूच्यंगुलके असंख्यातमे भागप्रमाण असंख्यातभागवृद्धि के स्थान, इन दो वृद्धियों को जघन्य ज्ञानके उपर होजानेपर एक वार संख्यात भागवृद्धिका स्थान होता है । इसके आगे उक्त क्रमानुसार उत्कृष्ट संख्यातमात्र संख्यात भागवृद्धियों के होजानेपर उसमें प्रक्षेपक वृद्धिके होनेसे लब्ध्यक्षरका प्रमाण दूना होजाता है । परन्तु प्रक्षेपककी वृद्धि कहां २ पर कितनी २ होती है यह बताते हैं । उत्कृष्ट संख्यातमात्र पूर्वोक्त संख्यात भागवृद्धि के स्थानोमेंसे तीन-चौथाई भागप्रमाण स्थानोंके होजानेपर प्रक्षेपक और प्रक्षेपकप्रक्षेपक इन दो वृद्धियों को जघन्य ज्ञानके ऊपर होजानेसे लब्ध्यक्षरका प्रमाण दूना होजाता है। पूर्वोक्त संख्यात• भागवृद्धियुक्त उत्कृष्ट संख्यातमात्र स्थानोंके छप्पन भागों में से इकतालीस भागों के वीतजानेपर प्रक्षेपक और प्रक्षेपक प्रक्षेपककी वृद्धि होनेसे साधिक ( कुछ अधिक ) जघन्यका दूना प्रमाण होजाता है । अथवा संख्यात भागवृद्धि के उत्कृष्ट संख्यातमात्र स्थानोंमें से सत्रह स्थानोंके अनन्तर For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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