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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। १२३ नवरि विशेष जानीहि सूक्ष्मजघन्यं तु पर्यायं ज्ञानम् । पर्यायावरणं पुनः तदनन्तरज्ञानभेदे ॥ ३१८ ॥ अर्थ—सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकके जो सबसे जघन्य ज्ञान होता है उसको पर्याय ज्ञान कहते हैं । इसमें विशेषता केवल यही है कि इसके आवरण करनेवाले कर्मके उदयका फल इसमें (पर्याय ज्ञानमें) नहीं होता; किन्तु इसके अनन्तरज्ञानके (पर्यायसमास ) प्रथम भेदमें होता है। भावार्थ-यदि पर्यायावरण कर्मके उदयका फल पर्यायज्ञानमें होजाय तो ज्ञानोपयोगका अभाव होनेसे जीवका भी अभाव होजाय, इसलिये पर्यायावरण कर्मका फल उसके आगेके ज्ञानके प्रथम भेद में ही होता है। इसीलिये कमसे कम पर्यायरूप ज्ञान जीवके अवश्य पाया जाता है । सुहमणिगोदअपजत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्हि । हवदि हु सवजहण्णं णिचुग्घाडं णिरावरणम् ॥ ३१९ ॥ सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य प्रथमसमये । ___ भवति हि सर्वजघन्यं नित्योद्घाटं निरावरणम् ॥ ३१९॥ अर्थ-सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें सबसे जघन्य ज्ञान होता है । इसीको पर्याय ज्ञान कहते हैं । इतना ज्ञान हमेशह निरावरण तथा प्रकाशमान रहता है। पर्याय ज्ञानके खामीकी विशेषता दिखाते हैं। सुहमणिगोदअपज्जत्तगेसु सगसंभवेसु भमिऊण । चरिमापुण्ण तिवक्काणादिमवक्कट्ठियेव हवे ॥ ३२० ॥ सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तगेषु स्वकसम्भवेषु भ्रमित्वा । चरमापूर्णत्रिवक्राणामादिमवक्रस्थिते एव भवेत् ॥ ३२० ॥ अर्थ--सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके अपने २ जितने भव ( छह हजार बारह ) सम्भव हैं उनमें भ्रमण करके अन्तके अपर्याप्त शरीरको तीन मोड़ाओंके द्वारा ग्रहण करनेवाले जीवके प्रथम मोड़ाके समयमें सर्वजघन्य ज्ञान होता है । सुहमणिगोदअपजत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्हि । फासिंदियमदिपुवं सुदणाणं लद्धिअक्खरयं ॥ ३२१ ॥ सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य प्रथमसमये । स्पर्शेन्द्रियमतिपूर्व श्रुतज्ञानं लब्ध्यक्षरकम् ॥ ३२१ ॥ अर्थ-सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें स्पर्शन इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक लब्ध्यक्षररूप श्रुतज्ञान होता है । भावार्थ-लब्धि नाम श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमका है, और अक्षर नाम अविनश्वरका है। इसलिये इस ज्ञानको For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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