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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। १०३ अर्थ-सत्य असत्य उभय अनुभय इन चार मनोयोगोंमें प्रत्येकका काल यद्यपि अन्तर्मुहूर्तमात्र है तथापि पूर्व २ की अपेक्षा उत्तरोत्तरका काल क्रमसे संख्यातगुणा है । और चारोंके जोड़का प्रमाण भी अन्तर्मुहूर्तमात्र ही है । इस ही प्रकार चारों मनोयोगोंके जोड़का जितना प्रमाण है उससे संख्यातगुणा काल चारों वचनयोगोंका है । और प्रत्येक वचनयोगका काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा पूर्व २ की अपेक्षा उत्तरोत्तरका प्रमाण संख्यातगुणा है । और चारोंके जोड़का प्रमाण भी अन्तर्मुहूर्त है। तज्जोगो सामण्णं काओ संखाहदो तिजोगमिदं । सबसमासविभजिदं सगसगगुणसंगुणे दु सगरासी ॥ २६२॥ .. तद्योगः सामान्यं कायः संख्याहतः त्रियोगिमितम् । .... सर्वसमास विभक्तं स्वकस्वकगुणसंगुणे तु स्वकराशिः ॥ २६२ ॥ .. अर्थ-चारो वचनयोगोंके जोड़का जो प्रमाण हो वह सामान्यवचनयोगका काल है। इससे संख्यातगुणा काययोगका काल है। तीनों योगोंके कालको जोड़देनेसे जो समयोंका प्रमाण हो उसका पूर्वोक्त त्रियोगिजीवराशिमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे उस एक भागसे अपनी २ राशिका गुणा करने पर अपनी २ राशिका प्रमाण निकलता है । भावार्थ-तीनो योगोंके जोड़का काल ८५४१७०१ अन्तर्मुहूर्तमात्र है । इसके जितने समय हों उनका त्रियोगिजीवों के प्रमाणमें भाग दीजिये । लब्ध एक भागके साथ सत्यमनोयोगीके कालके जितने समय हैं उनका गुणा कीजिये, जो लब्ध आवे वह सत्यमनोयोगवाले जीवोंका प्रमाण है । इस ही प्रकार असत्यमनोयोगीसे लेकर काययोगी पर्यन्त जीवोंमें प्रत्येकका प्रमाण समझना । कम्मोरालियमिस्सयओरालद्धासु संचिदअणंता। कम्मोरालियमिस्सयओरालियजोगिणो जीवा ॥ २६३ कार्मणौदारिकमिश्रकौरालाद्धासु संचितानन्ताः। कार्मणौरालिकमिश्रकौरालिकयोगिनो जीवाः ॥ २६३॥ अर्थ-कार्मणकाययोग औदारिकमिश्रयोग तथा औदारिककाययोगके समयमें एकत्रित होनेवाले कार्मणयोगी औदारिकमिश्रयोगी तथा औदारिककाययोगी जीव अनन्तानन्त हैं। इस ही अर्थको स्पष्ट करते हैं। समयत्तयसंखावलिसंखगुणावलिसमासहिदरासी। सगगुणगुणिदे थोवो असंखसंखाहदो कमसो ॥ २६४ ॥ समयत्रयसंख्यावलिसंख्यगुणावलिसमासहितराशिम् । स्वकगुणगुणिते स्तोकः असंख्यसंख्याहतः क्रमशः ॥ २६४ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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