SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १०० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । इस लिये इन दोनोंके समयप्रबद्धका प्रतिसमय बंध और उदय होता है, तथा किसी विवक्षित समयप्रबद्धके चरमनिषेक समयमें डेढ़ गुणहानि गुणित समयप्रबद्धोंकी सत्ता रहती है । किन्तु औदारिक तथा वैक्रियिक शरीरके समयप्रबद्धोंमें कुछ विशेषता है । वह इस प्रकार है कि जिस समयमें शरीर ग्रहण किया उस समयमें बंधको प्राप्त होनेवाले समयप्रबद्धके प्रथम निषेकका उदय होता है और द्वितीयादि समयोंमे द्वितीयादि निषेकोंका उदय होता है । और दूसरे समयमें बंधको प्राप्त होनेवाले समयप्रबद्धका प्रथम निषेक तथा प्रथम समयमें बद्ध समयप्रबद्धका द्वितीय निषेक उदित होता है । इस ही तरह तृतीयादिक समयोंका हिसाब समझना चाहिये । इसलिये इस क्रमसे अन्तमें व्यर्धगुणहानि-गुणित समयप्रबद्धोंकी सत्ता रहती है । किन्तु आहारक शरीरका युगपद् प्रथम समयप्रबद्धमात्र द्रव्यका उदय सत्त्व संचय रहता है। औदारिक और वैक्रियिक शरीरमें विशेषताको वताते हैं। णवरि य दुसरीराणं गलिदवसेसाउमेत्तठिदिबंधो । गुणहाणीण दिवटुं संचयमुदयं च चरिमम्हि ॥ २५४ ॥ नवरि च द्विशरीरयोर्गलितावशेषायुर्मात्रस्थितिबन्धः । गुणहानीनां व्यर्ध संचयमुदयं च चरमे ॥ २५४ ॥ अर्थ-औदारिक और वैक्रियिक शरीरमें यह विशेषता है कि इन दोनों शरीरोंके बध्यमान समयप्रबद्धोंकी स्थिति भुक्त आयुसे अवशिष्ट आयुकी स्थितिप्रमाण होती है । और इनका आयुके अन्त समयमें डेढ़ गुणहानिमात्र उदय तथा संचय रहता है । भावार्थशरीरग्रहणके प्रथम समयमें बंधको प्राप्त होनेवाले समयप्रबद्धकी स्थिति पूर्ण आयुःप्रमाण होती है और दूसरे समयमें बंधको प्राप्त होनेवाले समयप्रबद्धोंकी स्थिति एक समय कम आयुःप्रमाण और तीसरे समयमें बंधको प्राप्त होनेवाले समयप्रबद्धोंकी स्थिति दो समयकम आयुःप्रमाण होती है । इस ही प्रकार आगेके समयप्रबद्धोंकी स्थिति समझना चाहिये । इस क्रमके अनुसार अन्तसमयमें बंधको प्राप्त होनेवाले समयप्रबद्धकी स्थिति एक समयमात्र होती है। __ आयुके प्रथम समयसे लेकर अन्तसमय पर्यन्त बंधनेवाले समयप्रबद्धोंकी अवस्थिति, आयुके अन्तसमयसे आगे नहीं रह सकती इसलिये अन्त समयमें कुछ कम डेढ गुणहानिमात्र समयप्रबद्धोंका युगपत् उदय तथा संचय रहता है। किस प्रकारकी आवश्यक सामग्रीसे युक्त जीवके किस स्थान पर औदारिक शरीरका उत्कृष्ट संचय होता है यह बताते हैं । ओरालियवरसंचं देवुत्तरकुरुवजादजीवरस । तिरियमणुस्सस्स हवे चरिमदुचरिमे तिपल्लठिदिगस्स ॥ २५५ ।। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy