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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । भात=कुलु । बहुत मनुष्योंकी सम्मतिसे जो साधारणमें रूढ हो उसको सम्मतिसत्य या संवृतिसत्य कहते हैं । जैसे पट्टराणीके सिवाय किसी साधारण स्त्रीको भी देवी कहना । भिन्न वस्तुमें भिन्न वस्तुके समारोप करनेवाले वचनको स्थापनासत्य कहते हैं । जैसे प्रतिमाको चन्द्रप्रभ कहना । दूसरी कोई अपेक्षा न रखकर केवल व्यवहारकेलिये जो किसीका संज्ञाकर्म करना इसको नामसत्य कहते हैं । जैसे जिनदत्त । यद्यपि उसको जिनेन्द्रने दिया नहीं है तथापि व्यवहारकेलिये उसको जिनदत्त कहते हैं । पुद्गलके रूपादिक अनेकगुणोंमेंसे रूपकी प्रधानतासे जो वचन कहा जाय उसको रूपसत्य कहते हैं । जैसे किसी मनुष्यके केशोंको काला कहना, अथवा उसके शरीरमें रसादिकके रहने पर भी उसको श्वेत कहना किसी विवक्षित पदार्थकी अपेक्षा दूसरे पदार्थके स्वरूपका कथन करना इसको प्रतीत्यसत्य अथवा आपेक्षिकसत्य कहते हैं। जैसे किसीको बड़ा लम्बा या स्थूल कहना । नैगमादि नयोंकी प्रधानतासे जो वचन बोला जाय उसको व्यवहारसत्य कहते हैं। जैसे नैगम नयकी प्रधानतासे 'भात पकाता हूं ' संग्रहनयकी अपेक्षा 'सम्पूर्ण सत् हैं 'अथवा' सम्पूर्ण असत् हैं" आदि । असंभवताका परिहार करते हुए वस्तुके किसी धर्मको निरूपण करनेमें प्रवृत्त वचनको संभावना सत्य कहते हैं। जैसे इन्द्र जम्बूद्वीपको लौटादे अथवा लौटा सकता है। आगमोक्त विधि निषेधके अनुसार अतीन्द्रिय पदार्थों में संकल्पित परिणामोंको भाव कहते हैं, उसके आश्रित जो वचन हों उसको भावसत्य कहते हैं। जैसे शुष्क पक तप्त और निमक मिर्च खटाई आदिसे अच्छीतरह मिलाया हुआ द्रव्य प्रासुक होता है । यहां पर यद्यपि सूक्ष्म जीवोंको इन्द्रियोंसे देख नहीं सकते तथापि आगमप्रामाण्यसे उसकी प्रासुकताका वर्णन किया जाता है। इसलिये इसही तरहके पापवर्ज वचनको भावसत्य कहते हैं । दूसरे प्रसिद्ध सदृश पदार्थको उपमा कहते हैं । इसके आश्रयसे जो वचन बोला जाय उसको उपमासत्य कहते हैं। जैसे पत्य । यहां पर रोमखण्डोंका आधारभूत गड्डा, पल्य अर्थात् खासके सदृश होता है इसलिये उसको पल्प कहते हैं । इस संख्याको उपमासत्य कहते हैं। इस प्रकार ये दशप्रकारके सत्यके दृष्टान्त हैं इसलिये और भी इस ही तरह जानना । दो गाथाओंमें अनुभय वचनके भेदोंको गिनाते हैं। आमंतणि आणवणी याचणिया पुच्छणी य पण्णवणी । पचक्खाणी संसयवयणी इच्छाणुलोमा य ॥ २२४ ॥ णवमी अणक्खरगदा असच्चमोसा हवंति भासाओ। सोदाराणं जम्हा वत्तावत्तंससंजणया ॥ २२५ ॥ आमन्त्रणी आज्ञापनी याचनी आपृच्छनी च प्रज्ञापनी । . प्रत्याख्यानी संशयवचनी इच्छानुलोनी च ॥ २२४ ।। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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