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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८४ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् । शेष सूक्ष्म जीवोंका प्रमाण है । इसके प्रतिभागहारका प्रमाण पूर्वोक्त असंख्यात लोकप्रमाण है । भावार्थ- पृथिवीकायिकादि जीवोंकी अपनी २ राशिमें असंख्यात लोकका भाग देने से जो लब्ध आवे वह एक भाग प्रमाण बदर, शेष बहुभागप्रमाण सूक्ष्म जीवोंका प्रमाण है । हमे संभागं संखा भागा अपुण्णगा इदरा । जस्सि अपुण्णद्धादो पुण्णद्धा संखगुणिदकमा ॥ २०७ ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सूक्ष्मेषु संख्यभागः संख्या भागा अपूर्णका इतरे । यस्मादपूर्णाद्धातः पूर्णाद्धा संख्यगुणितक्रमाः ॥ २०७ ॥ अर्थ — सूक्ष्म जीवों में संख्यात भागमें से एक भागप्रमाण अपर्याप्तक और बहुभागप्रमाण पर्याप्तक हैं । क्योंकि अपर्याप्तक के कालसे पर्याप्तकका काल संख्यातगुणा है । पलासंखेज वहिदपदरंगुलभाजिदे जगप्पदरे | जलभूणिपबादरया पुण्णा आवलिअसंखभजिदकमा ॥ २०८ ॥ पल्यासंख्यावहितप्रतराङ्गुलभाजिते जगत्प्रतरे । जलभूनिपबादरका: पूर्णा आवल्यसंख्यभजितक्रमाः ॥ २०८ ॥ अर्थ - पल्पके असंख्यातमे भागसे भक्त प्रतराङ्गुलका जगत्प्रतर में भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना बादर पर्याप्त जलकायिक जीवोंका प्रमाण है । इसमें अवलिके असंख्यातमे भागका भाग देनेसे जो शेष रहे उतना बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीवोंका प्रमाण है । इसमें भी आवलिके असंख्यातमे भागका भाग देनेसे जो शेष रहे उतना सप्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्त जीवराशिका प्रमाण होता है । पूर्वकी तरह इसमें भी आवली के असंख्यातमे भागका भाग देनेसे जो शेष रहे उतना अप्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्त जीवराशिका प्रमाण होता है । विंदावलिलो गाणमसंखं संखं च तेउवाऊणं । पजत्ताण पमाणं तेहि विहीणा अपजत्ता ॥ २०९ ॥ वृन्दावलिलोकानामसंख्यं संख्यं च तेजोवायूनाम् । पर्याप्तानां प्रमाणं तैर्विहीना अपर्याप्ताः ॥ २०९॥ I अर्थ – घनावलिके असंख्यात भागों में से एक भाग प्रमाण पर्याप्त तेजस्कायिक जीवों का प्रमाण है । और लोकके संख्यात भागों में से एक भागप्रमाण पर्याप्त वायुकायिक जीवोंका प्रमाण है । अपनी २ सम्पूर्ण राशिमेंसे पर्याप्तकों का प्रमाण घटानेपर जो शेष रहे वही अपर्याप्तकों का प्रमाण है । भावार्थ सूक्ष्म जीवोंका अलग वर्णन किया गया है । इसलिये "पल्ला संखेज्जवहिद" द" और "बिंदावलिलोगाण" इन दो गाथाओं में बादर जीवोंका ही प्रमाण For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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