SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ८२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । यथा कंचनमग्निगतं मुच्यते किट्टेन कालिकया च । तथा कायबन्धमुक्ता अकायिका ध्यानयोगेन । २०२॥ अर्थ-जिस प्रकार अनिके द्वारा सुसंस्कृत सुवर्ण बाह्य और अभ्यन्तर दोंनो ही प्रकारके मलसे रहित होजाता है । उस ही प्रकार ध्यानके द्वारा यह जीव शरीर और कर्मबन्धसे रहित होकर सिद्ध होजाता है । भावार्थ-जिस प्रकार सोलह तावके द्वारा तपाये हुए सुवर्णमें बाह्य और अभ्यन्तर दोनों ही प्रकारके मलका बिलकुल अभाव होजानेपर फिर किसी दूसरे मलका सम्बन्ध नहीं होता । उस ही प्रकार शुक्लध्यान आदिरूपी अग्निके द्वारा सुतप्त आत्मामें काय और कर्मके सम्बन्धके सर्वथा छूटने पर फिर उनका बन्ध नहीं होता। ग्यारह गाथाओंमें पृथिवी कायिकादि जीवोंकी संख्याको बताते हैं । आउद्धरासिवारं लोगे अण्णोण्णसंगुणे तेऊ । भूजलवाऊ अहिया पडिभागोऽसंखलोगो दु ॥ २०३॥ सार्धत्रयराशिवारं लोके अन्योन्यसंगुणे तेजः।। भूजलवायवः अधिकाः प्रतिभागोऽसंख्यलोकस्तु ॥ २०३ ॥ अर्थ-शलाकात्रयनिष्ठापनकी विधिसे लोकका साढ़े तीन वार परस्पर गुणा करनेसे तेजस्कायिक जीवोंका प्रमाण निकलता है। पृथिवी जल वायुकायिक जीवोंका उत्तरोत्तर तेजस्कायिक जीवोंकी अपेक्षा अधिक २ प्रमाण है । इस अधिकताके प्रतिभागहारका प्रमाण असंख्यातलोक है। भावार्थ-लोकप्रमाण ( जगच्छ्रेणीके घनका जितना प्रमाण है उसके बराबर ) शलाका विरलन देय इस प्रकार तीन राशि स्थापन करना । विरलन राशिका विरलन कर (एक २ वखेर कर) प्रत्येक एकके ऊपर उस लोकप्रमाण देय राशिका स्थापन करना, और उन देय राशियोंका परस्पर गुणा करना, और शलाका राशिमेंसे एक कम करना । इस उत्पन्न महाराशिप्रमाण फिर विरलन और देय ये दो राशि स्थापन करना, तथा विरलन राशिका विरलन कर प्रत्येक एकके ऊपर देयराशि रखकर पूर्वकी तरह परस्पर गुणा करना, और शलाका राशिमेंसे एक और कम करना । इस ही प्रकारसे एक २ कम करते २ जब समस्त शलाका राशि समाप्त होजाय तब उस उत्पन्न महाराशिप्रमाण फिर विरलन देय शलाका ये तीन राशि स्थापन करना, और विरलन राशिका विरलन और देय राशिका उक्तरीतिसे गुणा करते २ तथा पूर्वोक्त रीतिसे ही शलाका राशिमेंसे एक २ कम करते २ जब दूसरी वार भी शलाका राशि समाप्त होजाय, तब उत्पन्न महाराशिप्रमाण फिर तीसरी वार उक्त तीन राशि स्थापन करना । और उक्त विधानके अनुसार ही विरलन राशिका विरलन देय राशिका परस्पर गुणाकार तथा शलाका राशिमेंसे एक २ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy