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________________ ६४ " वीरस्तुतिः। . जेम खोराक मळवाथी मनुष्य, शरीर पुष्ट थाय छे, अने न मळवाथी सुकाई जाय छे, तेम वनस्पति पण खातर तथा पाणीनो खोराक मळवाथी ते विकास पामे छे, अने तेना अभावे ते सुकाई जाय छे, जेम मनुष्य श्वास ले छे, तेम वनस्पति पण श्वास ले छे, दिवसे कार्वन हवा लईने रात्रे वनस्पति ऑकसीजन हवा बाहर काढे छे, जेम केटलाक मनुष्यो मासाहारी होय छे, तेम वनस्पति पण माखीपतंग आदि नाना जीवोना सत्वने पोतानां पादडा वती चुसी ले छे, या खातर अने हवा द्वारा मांसाहार करे छ, चन्द्रमुखी पुष्प चन्द्रमानी सामे ने सूर्यमुखी पुष्प सूर्यनी सामे खोले छे, अने तेमना अस्त थवाथी बीडाई जाय छ । तेमां भूत-सत्व पण छे, जेमके बे-त्रण-चार इन्द्रियवाळा जीवो प्राणी कहेवाय छे, वनस्पतिने भूत, पाच इंद्रियवालाने 'जीव, अने पृथ्वी-पाणी-अग्नि-वायुने 'सत्व' कहे छे, ए वधा जीवोमां १० द्रव्य प्राण होय छे, जेनी गणतरी नीचे मुजव नी छ। पाच इन्द्रिय, मन, वचन, काय, आयुष्य, श्वासोश्वास, ए दश प्राण छ, आ प्राणधन सर्व जीवोने अत्यन्त प्रिय छ । स्थावरोमां जीव होवान सावित थवाना पुष्ट कारणे चार्वाक-नास्तिक आदिनुं खंडन थई जाय छे, आ सर्व जीवो द्रव्य दृष्टिए नित्य अने पर्याय दृष्टिए अनित्य छे, एम महावीर भगवाने फरमावेलुं छे, प्रभु पोते बेट समान डूवता ससारी जीवोने सहायक छे, तेमज तेमनुं ज्ञान तत्वनो निर्णय कराववाने कारणे दीपक समान छे, दीपक समान खरूप-पररूपनुं जान प्रगट थई जाय छे, आ भगवान्नो धर्म छ, के जे तेओए तुलनात्मक दृष्टि थी कहेलो छ। धर्मोपदेश करवानो तेमनो उद्देश लोकोने समभाव-गान्ति-अहिंसा-सत्यनुं स्वरूप समजावीने परोपकार करवानो हतो, पण पोतानो उत्कर्ष प्रगट करवानो न हतो ॥ ४ ॥ से सचदंसी अभिभूय नाणी, णिरामगंधे धिइमं ठियप्पा; अणुत्तरे सवजगंसि विजं, गंथा अतीते अभए अणाऊ ॥५॥
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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