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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता भोक्ता यद्यपि जीव शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे रागादिविकल्परूप उपाधियोंसे शून्य है, और अपने आत्मासे' उत्पन्न हुए अमृतको भोगनेवाला है, तथापि अशुद्धनयसे उस सुखरूप अमृतपदार्थके अभावसे शुभ कमसे उत्पन्न सुख और अशुभ मसे उत्पन्न दु खोंको भोगता है अत. भोक्ता मी है। संसारस्थ ससारमै स्थित रह कर अनेक पर्याय बदलता रहने के कारण ससारी है। यद्यपि जीव शुद्ध निश्चयनयसे ससार रहित है और नित्य आनन्दघन रूप एक खभावका धारक है तथापि अशुद्ध निश्चय नयसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव इन भेदोंसे पाच प्रकारके ससारमें रहता है अत यह आत्मा-जीव ससारस्थ भी है। सिद्ध यह आत्मा सिद्ध भी है। यथाह प्रज्ञापनायाम्-सितं बद्धंअष्टप्रकारं कर्मेन्धनम् , ध्मातं दग्धं जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यैस्ते निरुक्तविधिना सिद्धाः । अथवा 'पिधु गतौ' इति वचनात् सेधन्ति स अपुनरावृत्त्या निवृत्तिपुरीमगच्छन् , अथवा 'पिधु सराद्धौ' इति वचनात् सिद्ध्यन्ति स्म निष्ठितार्था भवन्ति स्म । अथवा "षिधूञ् शास्त्रे मांगल्ये च" इति वचनात् सेधन्ति स्म शास्तारोऽभूवन् , मांगल्यरूपतां चानुभवन्ति स्मेति सिद्धाः । अथवा सिद्धा नित्या अपर्यवसानस्थितिकत्वात् , प्रख्याता वा भव्यरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात् , आह च, "मातं सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो निवृतिसौधमूर्ध्नि; ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमंगलो मे" अतः स सिद्धो नमस्करणीयश्चैषामविप्रणाशिज्ञान-दर्शन-सुखशक्त्यादिगुणयुक्ततया खविषयप्रमोदप्रकर्पोत्पादनेन भन्यानामतीवोपकारहेतुत्वादिति ।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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