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________________ वीरस्तुतिः। "मोक्षलक्ष्मीना दाता, ने प्राप्त करीचुक्या छबल छ, ते वीर कहे - गुजराती अनुवाद-वीरभगवाननां रत्नत्रय सम्बन्धी प्रश्नो-. मोक्षलक्ष्मीना दाता, सर्व पदार्थोना जाता, जेमनी वाणी अमोघ अने विलक्षण छे, जे अष्टम पृथ्वी मोक्षने प्राप्त करीचुक्या छे वीर रस भरपूर छे,वीरताथी जेमणे कामराज मृत्युराज अने मोहराजने जीती लीधेल छे, ते वीर कहेवाय छे, महावीर प्रभु महावीरज हता, तेमनामा आ वधी वातो हती।। ज्ञान तेमनुं ज्ञान के हतुं ? कारणके प्रमाणज हितनी प्राप्ति अने अहितनो लाग करवामा समर्थ छे, तेथी ज्ञानज प्रमाण होई शके छे । वळी ज्ञानज वस्तु तत्वनो निर्णय करावे छे, तेथी ज्ञानज परम उपकारी छ । ___ पुन कह्यु छ के-जेमा त्रणे काल गोचर अनन्तगुण पर्याय सयुक्त पदार्थ अतिशय साथ प्रतिभासे छे, तेने जानीजनो ए जान कहेलं छे, आ सामान्यपणे पूर्ण ज्ञान- खरूप छे, आकाशद्रव्य अनन्तप्रदेशी छे तेना मध्यमा असख्यात प्रदेशी लोकाकाग छे, तेमा जीव-अजीव-पुद्गल-धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय अने काल ए अनन्तद्रव्य छ। तेना त्रण काल सम्बन्धी भिन्नभिन्न अनन्त पर्याय छे, ते वधाने युगपत् [एक समयमा] जाणवानो पूर्णज्ञान आत्मानो निश्चय खभाव छ। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य खभाववाला पदार्थाथी आ जगत् अतिशय भयुं पड्यु छे, जे ज्ञानमा आ वधुं एकदम प्रतिविम्वित थाय छे, ते ज्ञान परम योगीश्वरोने माटे तो नेत्र समान छ। तदुपरान्त पण कथु छ के-"जेनी द्वारा वधा तत्वोने विचार श्रेणिथी आत्मा स्पष्ट रूपे जुए छे, जे तत्वमा अनन्त पर्याय-गुणनी सत्ता छे, तेने सम्यक् प्रकारे जाणवाने माटे ज्ञानज हितकर अने प्रथम साधन छे, तेनाथी आत्मा जडससारथी अलग थई शके छे।" आत्मानो कल्याण करवावाळाओ माटे जानतुं आराधन सौथी प्रथम एटलामाटे इष्ट छ के तेनाथी जीव पौगलिक तेमज शारीरिक सुखथी विरक्त बनी जायछे । पोताना आत्मीय गुणरत्ननी रक्षा तेनी छत्र छायामा यई शके छे। वळी तेनाथी- प्रवृत्ति-पापद्वार ने रोकीने आत्मशोधमा लागी जाय छ । - ज्ञाननी पूर्ण मात्राना प्रभावथी क्रोध शान्त थई जाय छे । तेनाथी आत्मामा अपूर्व समभावनी झांकी थाय छ । शान्तिना कारणे सर्वप्राणिओमा अभेदरूपे
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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