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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २५ अत्राह्मण जो क्रोध और मान तथा प्राणि-हिंसा- करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, परिग्रह-तृष्णा युक्त है। वह ब्राह्मण जाति और विद्यासे हीन तथा पतित है, वही अब्राह्मण और पाप क्षेत्र कहलाता है। ब्राह्मणोचित-सर्वश्रेष्ठ यज्ञ• जो पांच सवर भावोंसे आस्रवद्वारा आनेवाले पापको रोकता है, जिसे जीवित रहनेकी आकाक्षा नहीं होती, जो कायोत्सर्ग द्वारा भात्म-चिंतनमें लगा रहता है, मन, वाणी तथा कायके पापविकारोंसे अलग हटकर जो सर्वथा पवित्र हो गया है। जिसने देहका मोह त्याग दिया है, वह महाजय पानेका उत्तम अधिकारी है, यही श्रेष्ठ यज्ञ करता है। ब्राह्मणोचित तीर्थमान धर्मरूपी द्रह है, ब्रह्मचर्य शान्तितीर्थ है, आत्माका प्रसन्न लेश्या रूप पवित्र जल है, इसीमें स्नान करनेसे कर्मरहित और निर्मल होकर जन्म मरणसे मुक्त होता है। उसमें सदाके लिए अपुनरावृतिरूप पवित्रता आ जाती है । अध्यात्म दोषोंका सर्वथा अमाव तव ही होता है ॥ ४६ ॥ यह मान आत्मज्ञानके मर्मज्ञोंने देखा है, ऋषियोंका श्रेष्ठतम और महास्नान (महाव्रत) ही है। जिसमें स्नान करनेवाले, पवित्र और कर्मरहित, होनेवाले महर्षिगण उतम मोक्ष स्थानको प्राप्त करते हैं। इस प्रकार उपरोक्त लक्षणवाले ब्राह्मणों की तरह गृहवासी, क्षत्रियादिक तथा परमतावलम्बी भी यही पूछेगे कि साधु और गृहस्थके भेदसे जो धर्म दो प्रकार का है वह किसने बताया है ? उसका प्रणेता कौन है ? जो धर्म दुर्गतिमें पडनेसे धारण करके आत्माको बचानेवाला है, समदृष्टिसे एकान्त कल्याण और हित करनेवाला है। जिसकी महिमा अतुल और अपार है । उसे किस प्रणेताने समतापूर्वक कहा है ? जिसमें विषमता और पूर्वापर विरोधका नाम तक भी नहीं है ॥१॥ - गुजराती अनुवाद-आ संसाररूपी गहन वनमा भ्रमण करता प्राणिओने माटे दश दृष्टान्ते दुर्लभ एवा मनुष्य जन्मनी प्राप्ति थवी अति कठण छे, तदुपरान्त आर्यदेश, [आर्यभोजन, आर्यवृत्ति, आर्यवेश, आर्यसहवास,
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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