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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३५७ सकता है। जिस मनुष्यको सनातन सुख अभीष्ट हो उसे योगकी साधनामें लगना चाहिये। योग और योगीकी महत्ता वही ही ऊंची है। श्री गीता भगवतीमें श्रीकृष्णचन्द्रने कहा है कि तपखिभ्योऽधिको योगी, शानिभ्योऽपि मतोऽधिकः। ..' कर्मिभ्यश्चाधिको योगी, तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ - (अध्याय ६, श्लोक ४७)' भावार्थ-उपवासादिक अनेक प्रकारके लम्बे-लम्बे तप करनेवालोंसे योगी वढा है। नय, निक्षेप, देवादिकी आयुष्यके भंग (मांगे) तथा जीवादिकी सख्याकी गणना करनेवाले वाचाल ज्ञानियोंसे भी योगी वडा है, आवश्यकादि कार्य करनेवालेसे भी योगी बहुत बडा है। अत. हे अर्जुन ! तू योगी वन। योगयुक्तो विशुद्धात्मा, विजितात्मा जितेन्द्रियः। सर्वभूतात्मभूतात्मा, कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ . . (गीता अध्याय ७, श्लोक ५), भावार्थ-आत्म-विजेता, इन्द्रियजित् और सब भूतोंपर समभाव रखनेवाला योगी पुरुष कर्म करनेपर भी निष्कर्म समझा जाता है। अर्थात् कर्म लेपसे लिप्त नहीं होता। . इसी प्रकार जैन-दर्शनमें भी कहा है कि "अग्गं च मूलं विलं च विर्गि च धीरेपलिच्छिन्दियाणं णिकम्मदंसी ॥" (आचारांग) अग्रकर्म और मूलकर्मके भेदको समझ कर विवेक द्वारा कर्म करो इस प्रकार कर्म करनेपर वह साधक निष्कर्मा कहलाता है। . . , अकम्मस्स ववहारोण विजइ । कम्मुणा उवाहि जायइ ।। (आचारांग ३-१-३) भावार्थ-निष्कर्मके जीवनमें उपाधि या उत्पात नहीं होता । इसी प्रकार लौकिक टीपटाप और दिखाव वनाव भी नहीं होता। इसका शरीर मान योग क्षेत्रका वाहन होता है, इत्यादि। . .
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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