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________________ वीरस्तुतिः। निश्चलतासु होयगा, रे जिय ! ब्रह्म समान । तृण का ही घृत होत है, गाय चरे पय पान ॥ ९३॥ स्थैर्येण भविता जीव! ब्रह्मतुल्यो ह्यसंशयम् । सर्पिस्तेन तृणं स्याद्यद्गौश्वरति जलेन च ॥ ९३ ॥ जो तू चाहे अमर पद, करि दृढता अखत्यार । बाल न वांका होयगा, जीवत ही मनमार ॥ ९४ ॥ यद्यमरपदेच्छा ते, धैर्य्यमङ्गीकुरुष्व वै । जहि मनस्तु जीवद्वा, नैवं केशस्य वक्रता ॥ ९४ ॥ धीरज गुण धारण किये, सव ही दुःख कट जाय । जैसे ठंडे लोहसे, तत्ता लोह कटाय ॥ ९५ ॥ धृतधैर्य्यगुणे सर्व, दुःखं नश्यति सत्वरम् । यथा शीतेन लोहेन, तप्ताऽऽयश्छिद्यते ध्रुवम् ॥ ९५ ॥ जल जिम निर्मल मधुर मृदु, करत तप्तको अन्त । इम धीरज गुण चार लखि, करो ग्रहण बुधवन्त ॥१६॥ निर्मलं मधुरं वारि, मृदुस्तापविनाशनम् । एवं चतुर्गुणं वैये, वीक्ष्य गृहीत वै बुधाः ॥ ९६ ॥ कला घटत अरु वढत है, नहीं शशिमण्डल जान । जन्म मरण गति देहकी, यो लखि धीरज ठान ॥ ९७ ॥ हानिवृद्धी कलायाश्च, नहीन्दुमण्डलस्य वा । देहस्यैवं गतिं जन्म, मृत्युं वीक्ष्य धृतिं धर ॥ ९७ ॥ सुखदुःख दोनों एकसे, है समझणको फेर । एक शब्द दो अर्थ ज्यों, लाख टकेकी सेर ॥ ९८ ॥ सुखदुःखे समे वै तु, वोधभेदस्तु लक्ष्यते । लोके *लाख टकाकी सेरेदं द्वयर्थकवाक्यकम् ॥ ९८ ॥ * “लाख टका की सेर" इदं वाक्यं लोके द्वयर्थकमस्ति, तद्यथा-पणद्वययेन लाक्षा प्रस्थमिता मिलतीति प्रथमोऽर्थः । लक्षसंख्याकपणयुग्मः किधिज्ज्ञानवस्तुप्रस्थपरिमितं मिलति, इति च द्वितीयोऽर्थः।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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