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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २६३ प्रतिध्वनि तो 'तेज' थकी पण तीव्र छे, कंचनवर्णी पृथ्वीसम सोहायजो गिरिराजमां प्रतिध्वनि जे थाय छे, एवी प्रभुनी ध्वनि दिव्य संभळाय जो, गिरिराज तो दुर्घट छे सौ प्राणीथी, कंचन रंगी दुर्घट वीर गणाय जो १२ पृथ्वी मध्ये गिरिराज उभो रह्यो, सूर्यकांति सम सोहे पृथ्वी मांय जो, विघ विघ रत्ने रंग चित्र विचित्र छे, सूर्यसमां ते शोभे दशदिश मांय जो । गिरिराज सम ऋषिवर्गमां महावीर, उज्वल मेरुसम शोमे ते अंग जो, मेरु सम ते अष्टलक्ष्मी उपेत छे, स्वयं प्रकाशी बीजो सूर्य निशंक जो १३ . उपमा प्रभुनी मेरु विण ना थइ शके, तेथी गायां मेरुनां गुणगानजो, ए उपमाए वीरप्रभुना गुण तु, समजी लेजे दर्शन शीलने ज्ञान जो, जेवी छे आ जाति-कीर्त्ति मेरुनी, तेवी जाति - कीर्ति प्रभुनी मान जो, गिरिराज तो व्यापक छे मध्यलोकमां, लोकालोके प्रभुनां दर्शन ज्ञानजो, गिरिवृन्दमां निषधसम लांबो नहि, गोळाकारे 'रुचक' विण नव होय जो, नौतम तेवी प्रज्ञा प्रभुनी धारवी, मुनिवर्गमां श्रेष्ठ वीर गणाय जो १५ विश्वधर्ममां जैनधर्म प्रधान छे, दीधुं रुडुं धर्म तणुं ए दान जो; सर्वध्यानमां शुक्लध्यान अति श्रेष्ठ छे, धरता एवु उत्तम शुक्ल ध्यान जो, शुक्लध्यान वळी फीणसमुं छे श्वेत ते, जेवो धोळो शंख बहु सोहाय जो, चद्रसमुं ते उज्वळ निर्मळ मानवु, श्वेत रंगथी वीर शुभ्र गणाय जो १६ वीर महर्षि मुक्तिदशाने पामिआ, परम स्थान ए लोक महिं लेखाय जो, भस्म कर्या छे कर्मरिपुना शेषने, कर्मयोगमां कर्मवीर मनाय जो; क्षायिक दर्शनने क्षायिक चारित्रथी, क्षायिक ज्ञाने सिद्धि पाम्या नाथजो ए सिद्धि तो आदि - अनन्ती जाणवी, विजय कर्यो छे राग-द्वेपनो साथजो; विजय,कर्याथी मोक्ष आदिने पामीआ, वाल्या जेणे सघळां पाप स्थानजो, पापस्थानो फरी सजीवन थाय नहिं, तेथी सिद्धि जम्बू अनन्ती मानजो १७
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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