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________________ २६६, वीरस्तुतिः। ... ' खार्थके लिए भी सदाचारों का सेवन नहीं करता। कीर्ति-वर्ण-शब्दके लिए भी साधुके आचारोंका पालन नहीं करता। (अर्थात् ) अर्हन्देवके फर्मानके मुजर्व निर्जराके हेतुको छोड कर किसी भी सार्थके लिए - आचारका पालन न करके मात्र निर्जरार्थ ही आचार पालन करता है। जो साधक दमितेन्द्रिय है, सचरित्रसे आत्मसमाधिका अनुभव करता है, महावीरके वचनोंमें अपनेको अर्पण, कर चुका है, वाद-विवादसे विरत और सम्पूर्ण क्षायिकभावको पाकर जिमका आत्मा मुक्तिके निकट हो जाता है। वह साधक इन चार समाधिओंसे आत्माका आराधक होकर-सुविशुद्ध होकर चित्तकी सुसमाधिकी साधमे लगकर परमहितकारी और अपना एकान्त सुखकारक कल्याणस्थान- खुद ही प्राप्त, करता है। समाधिसे जन्म और मरणके चक्रसे मुक्त होकर शाश्वत सिद्ध होता है । यदि थोडे बहुत कर्म वाकी रहगए हों तो महान् ऋद्धियुक्त उच्च और सर्वोत्तम् कोटिका 'देव' होता है ॥ ३ ॥ आत्मा सुवर्णकी तरह है, आभूषणोंकी तरह वह पर्यायी है, चराचर जगत् और चौरासीलाख जीवयोनि चारगति इसके पर्याय हैं । परन्तु चेतना गुण सवका एक है, समान है, किसीका किसीप्रकारसे अन्तर नहीं है।" 'अपने आत्माको निजखभावमे स्थापन कर, तव सोहं का भास होगा, इस अनुभवके पश्चात् (हंस )परमात्मरूप (खच्छ ) हो जायगा, परभावको छुडाने वाला केवळ-ब्रह्मपदार्थका परिचय पुद्गलपरिणतिका भरम मिटा देगा । इसीका अभ्यास चरित्र-आत्म रमणता है, जो कर्मरजको छानकर आत्मद्रव्यकों पृथक् प्रगट करदेता है।" ____ "इस आत्मामें शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श-आतप-छाया-अन्धकार-उद्योतप्रभा-आदि कुछ भी नहीं है, और आत्म-अनुभव होनेपर वाह्य पदार्थोंका मोह और ये दश जड वस्तुएँ आत्माके पास कभी फटक ही नहीं सकतीं।" , : "तथा सुख-दुःख जीवन-मरण-सम्बन्धी अवस्थाएँ इन , १० वाह्य प्राणों के साथ हैं, इनका पवित्र और स्थायी-प्राणोंके साथ कोई सवन्ध नहीं, विनयधर्मकी साधनामें चन्द्रमाके समान उच्च और पवित्र महावीर प्रभु उनसे इस प्रकार भिन्न हैं जिस प्रकार प्रखर कीचड और गंभीर जलसे उत्पन्न होकर कमलदल पानी और कीचडसे अलग रहता है । ७ . " विनयचंद (कुंभट),
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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