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________________ ३५० .....,वीरस्तुतिः।' . वीरस्तुति वीर जिनेश्वर चरणे लागु, वीरपणुं ते मागुं रे। मिथ्यामोह तिमिर भय भागं, जीत नगारुं वाग्य रे ॥१॥ शब्दार्थ-वीर जिनेश्वर चौवीसवें वीर प्रभुको, चरणे लागुं-नमस्कार करताहूं, (और) वीरपणुं ते-उनके समान, वीरपणुं शूरवीर भाव, मागुं रेमें उनके पाससे यांचा द्वारा मांग लेता हूं (उनका वीरत्व ऐसाहै कि-जिसके सन्मुख) मिथ्यामोह-मिथ्यात्व मोहनीय रूप, तिमिर भय अन्धकारका भय, भागुं-दूर भाग खड़ा हुआ है, और-जीत नगारु,-जयका नगारा, वाग्यु= रे-वज रहा है। भावार्थ में चौवीसवें जिनेश्वर श्रीमहावीरखामीकी भाव वन्दना करता हूं, और कर्मरूप शत्रुओंको जीतनेके लिए उनमें जो योद्धापन अथवा जैसा श्रीवीर भगवान्में वीरत्व है, में भी अपनेलिए वैसाही चाहता हूं, और जिनमें मिथ्यात्व मोहनीय कर्मरूप अंधकारका भय नष्ट होगयाहै, और फिर जीतका डंका बजगया है। परमार्थ में श्रीवीरभगवान्की भावोंसे वन्दना करके अपने लिए वीरत्व पानेकी माग पेश करता हूं, श्रीवीरभगवान् कैसे हैं, जिनका कि-मिथ्यात्वादि मोह दूर होगया है, तथा कर्मरूपी शत्रुओंको पराजय करनेसे जिनका जयपटह वजने लगा है, ऐसे श्रीभगवान्को नमस्कार करके में वीरता मागता हूं ॥१॥ छउमत्थ वीरज लेश्या संगे, अभिसधिज मति अंगे रे, ' सूक्ष्म थूल क्रियाने रंगे, योगी थयो उमंगे रे, वी० ॥२॥ शब्दार्थ-छउमस्थ-छद्मस्थ अवस्थाकी, वीरज लेश्या क्षायोपामिक वीर्यवाली, लेश्या-आत्म परिणामकी एक दशा, ( उसके) सगे-सयोगके द्वारा (तथा ) अभिसधिज-अभिसंधि जनित-योगाभिसन्धिजनित-योगको ग्रहणकरनेकी-अपने आप ही होनेवाली इच्छासे उत्पन्न-मति=बुद्धि, (उसके) अगेरे-उसकी छायाके कारण (तथा) सूक्ष्म आत्मिक, (और) थूल-व्यावहारिक, क्रियाने रगे-क्रियाका समाचरण करनेके उत्साहसे (वीरभगवान्) योगी थयो-योगी वनगए, उमंगेरे-उमंगके साथ-न कि जवरदस्तीसे,
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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