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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २२९ सरलतया बुबोधसिषाधयिषया ज्ञातपुत्रमहावीरजैनसङ्घीया नाम्नी संस्कृतटीका हैन्दवीटीका-गुर्जरभाषाटीका यथाशक्ति-मतिरचिताऽत्र प्रमादादिनाऽथवाऽल्पधिया च भाविनी मदीयां स्खलनां संशोधयन्तस्तत्त्वपदार्थनयनिक्षेपसम्बन्धिभावं प्रदर्शयन्तो धीरा मो चेदनुग्रहणीयुस्तर्हि बहुलजनोपकारोद्योगसन्तुष्टेन श्रीज्ञातूपुत्र-महावीरप्रमुशासनस नानुग्रहतोऽहमिति सम्भावयेयमिति प्रार्थयते श्रीज्ञातृपुत्रमहावीरजैनसङ्घानुयायिनां लघुतमः पुष्पभिक्षुः॥ इति श्रीज्ञातपुत्रमहावीरजैनसचान्तर्गतमुनिफकीरचन्द्रशिष्येण पुष्पभिक्षुणा विरचिता वीरस्तुत्याः संस्कृत-भाषाटीका च समाप्तेति शम् ॥ . अन्वयार्थ-[समाहितं] सम्यक् प्रकारसे कहे हुए [य] और [अट्ठपदोवसुद्धं] अर्थ और पदोंसे निर्दोष [अरिहतभासिय] अर्हन् प्रभुद्वारा उपदिष्ट [त ] उस [ धम्मं] धर्मको [सोच्चा] सुनकर [सदहाणा ] श्रद्धा प्रतीति करनेवाले [जणा ] मनुष्य [देवाहिव] देवोंके स्वामी [ इदा] इन्द्र [व] और [अणाऊ] आयुरहित सिद्ध परमात्माके पदको [आगमिस्सति ] प्राप्त होंगे ॥२८॥ ___ भावार्थ-श्रीसुधर्माचार्य अपने अन्तेवासी शिष्यके प्रश्नोंका इसप्रकार उत्तर देते हुए यो उपसहार करते हैं कि अर्हन् भगवान् द्वारा कहे गए धर्मका जो पूर्ण श्रद्धान करते हैं वे या तो भायुरहित और कर्म रहित होकर मुक्तिको प्राप्त करते हैं या इन्द्रादि पदको पाते हैं या पाएँगे ॥ २८ ॥ भापाटीका-सुधर्माचार्य श्रीतीर्थंकर प्रभुके गुणोंका वर्णन करते हुए अपने जम्बूनामक अन्तेवासी शिष्यसे कहते हैं कि-जो भव्य दुर्गतिमें पडनेसे बचानेवाले ज्ञान और चरित्ररूप धर्मको अईन भगवान्से भाव पूर्ण तथा परिणामयुक्त अभिप्रायको सुनकर निर्धारण करते हैं, वे आयुष्यादि सव कर्म वन्धनोंसे मुक्त होकर या तो अपुनरावृत्ति-निर्वाणधाम (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं या आयुवाले स्थानमें अनुकूल सुस भोगनेवाले 'अहमिन्द्र' होते हैं, अथवा
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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