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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १८५ - अन्वयार्थ-[वीर ] भगवान् महावीर [पुढोवमे] पृथ्वीकी तरह सबके आधारभूत अथवा पृथिवीकी सदृश परिषह-उपसर्ग आदि सहनेवाले [धुणति] आठ कर्मोकी मूल प्रकृतिओंको और उत्तर प्रकृतिओंको नष्ट करते हैं, [विगयगेहि ] अमिलाषा रहित तथा जो [ सण्गिहिं] द्रव्य आदिका संचय [न] नहीं [कुव्वति ] करते, [आसुपने] और जिनका ज्ञान सदा शीघ्र उपयोगयुक्त है, [समुई ] समुद्रकी [व] भाति [महाभवोघं ] पर्यायोंके समूहरूप अनन्त संसारको [तरिउ] पार होकर [ अभयंकरे ] अपने और औरोंके द्वारा जीवोंकी रक्षा करनेवाले और [अणन्तचक्खु ] अनन्त-ज्ञानयुक्त थे ॥२५॥ भावार्थ-ससारके प्राणी पृथ्वीपर सव प्रकारके कार्य करते हैं, किन्तु पृथ्वी किसीपर अप्रसन्न नहीं होती, प्रत्युत सब कुछ सहती है, इसी प्रकार भगवान् महावीर भी परिषह और उपसर्ग आदि सब कुछ सहते थे, न किसी पर प्रसन्न होते थे न अप्रसन्न, जिस तरह पृथ्वी सबके लिए आधार रूप है, भगवान् भी दयाल होनेसे आधारभूत थे, महावीर प्रभु आठ कर्मोसे रहित और बाह्य-वस्तुके ममत्वसे दूर थे, तथा छद्मस्थकी तरह जाननेके लिए उन्हें वस्तुके सोचने या विचारनेकी आवश्यकता न थी, क्योंकि भगवान् प्रतिसमय उपयोगात्मक ज्ञानसे युक्त थे, तथा अनेक दु खोंसे भरपूर ससार समुद्रसे पार होकर मुक्त होने वाले, खयं जीवरक्षा करनेवाले और उपदेशद्वारा औरोंकी रक्षा करानेवाले, तथा अनन्त-पदार्थोके ज्ञाता-दृष्टा थे ॥ २५ ॥ __ भाषाटीका-पृथ्वीकी सदृश सब प्रकारके प्रखर परिषह और उपसर्ग प्रभुने सेंही-वृत्तिसे सहन किए। तथा आठ कर्मरूपी रज मैलको नष्ट करके निर्लेप हुए। फिर उनकी वाहर और भीतरकी सब तृष्णा और आगाएं नष्ट होगईं। अत अब उन्हें किसी भी पदार्थमें अनुरक्ति नहीं है। अव वे द्रव्य सन्निधि ससारोपयोगी वस्तुएँ, भावसन्निधि इन्द्रियोंके विषय और कषाय का संग्रह न करेंगे। या वे इन्द्रियोंके विकारोंको प्रगट न होने देकर उनका सर्वथा नाश कर चुके हैं। उन्हें अव सर्वज्ञोपयोगी होनेसे छयस्थकी तरह मोच विचार कर वातें कहनेकी आवश्यकता नहीं। क्योंकि सर्वज्ञ हथेली पर धरे हुए आमलेकी तरह सब चराचर का अनन्त ज्ञान पाए हुए हैं। और फिर ससारसमुद्रको पार करने के अनन्तर सुदर निर्वाण को पाया है जहा से कभी पुनरावृत्ति न होगी। क्योकि वीरतासे आठ काँकी अनन्त कार्मण वर्गणाओंका अत्यन्त अभाव कर
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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