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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १७३ "तथी मूर्खता कर्यावगर मनुष्यजन्म सार्थक बनाववाने मनुष्ये ब्रह्मचर्य- पालन करवु जोइए। कदाचारनुं परिणाम-"बेलने नपुसक बनाववानी क्रिया, लपटोने यती सजा वगेरे जोइने बुद्धिमाने कुशीलनो त्याग करीने खदारसन्तोषव्रत अगीकार करीने परस्त्रीनो त्याग करवो जोइए, मैथुन सेवन किंपाक फळनी पेठे आरम्भमा सारु लागे छे, पण परिणामे दारुण कष्ट आपे छे।" "मैथुन सेवनथी शरीर कम्प; परसेवो, थाक, शिथिलता, चक्कर आववा, तिरस्कार थवो, वलनो क्षय, ज्वरादि रीगो थाय छे।" "योनिमा असख्य जीव राशीनी उत्पत्ति थाय छे, अने मैथुन सेवन वखते तेनो नाश थाय छे । वात्स्यायननो मत छे के रक्तमा सूक्ष्म जीवो पेदा थइ जाय छे, ने सयोग वखते ते मरी जाय छ। मैथुन सेवनथी काम ज्वरनी शान्ति नथी थती अग्निमा घी होमवाथी जेम ते शान्त थतो नथी, तेमज स्त्री सम्बन्धी वैषयिक सयोगथी काम ज्वर शान्त थतो नथी, पण वधे छ। स्त्रीए पण पर पुरुषने नाग समान समजीने तेओनो त्याग करवो जोइए कारणके ऐश्वर्यमा भले इन्द्र समान होय, सौन्दर्यमा कामदेवनो अवतार होय तो पण जेम सीताए रावणनो लाग को तेम सन्नारीओए पर-पुरुषनो त्याग करवो जोइए। ब्रह्मचर्यनुं फळ-ब्रह्मचर्य सच्चरित्रनु मूळ छे, परब्रह्म प्राप्तिनुं निमित्त छे, जे ब्रह्मचर्यनु पालन करे छे ते पूज्यना पण पूज्य छ । दीर्घ आयुष्य, सुन्दर शरीर, शरीर रचनामा दृढता, गरीर पर विलक्षण तेज, महान् शक्ति, यश कीर्ति, ससारमा मान, प्रतिष्ठा, ए सघळु ब्रह्मचर्यथी प्राप्त थाय छ । आ रीते सर्वलोकनी उत्तम-रूपसम्पदा वगेरे मेळवीने तेमज भायक ज्ञानदर्शन-शीलसमन्वित पुरुषोमा ज्ञातवंशीय अन्तिम जिनवरेंद्र श्रमण-भगवान्महावीर प्रधानतम हता ।। काश्यप-गोत्रीय-श्रमण भगवान् महावीर प्रभुना वर्धमान, विदेहदिन्न, ज्ञातपुत्र, काश्यप, वैशालिक, महावीर, सन्मति, वीर, श्रमण भगवान् इलादि अनेक नाम हता, ते वधा नामो तेनी अमुक अवस्थाना सूचक छ। कारण के मगवान् महावीर स्वामीन जीवन सासारिक तेमज साधक अवस्थामा जुहूं जुहूँ हतुं । वर्धमान, विदेहदिन (महावीर प्रभुनी मातानुं नाम "विदेहदिन्ना' पण हतुं,
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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