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________________ १३८ '..., वीरस्तुतिः । ' मगर चौथी रानीने उसे कुछ भी न देकर उसका वह प्राणदंड का अपराध राजासे कह कर क्षमा करा दिया। तव यह सुन उन तीनोंने कहा कि इसे तूने क्या दिया है ? चौथी रानीने कहा कि मैंने इसे वह वस्तु दी है, जिसे तुम सब मिल कर स्वप्नमें भी नहीं दे सकी । यह सुनकर वे सब क्रुद्ध होकर उसके गले पड गई और बोली कि हमने तो उसे क्रोडपति बनादिया है और तुम कहती हो कि हमने इसपर तुनके जितना उपकार भी नहीं किया। चौथीने कहा कि धनसे भी अधिक सवको अपने प्राण प्यारे होते हैं । मैंने इसे प्राणदान दिलं वाकर सदाके लिए सुखी बना दिया है। अब इसे मरनेका भय नहीं है जिससे मैंने सबसे बडा उपकारका कार्य किया है। यदि मेरे कहेका विश्वास न हो तो राजासे इसका न्याय कराना चाहिए। इतना कहनेके वाद राजाको तुरन्त महलमें बुलवाया गया, और रानियोंका वह मुकदमा सुन कर राजाने चोरको बुलाया और पूछा कि भाई ! सत्य कह तू किस रानीका अधिक उपकार मानता है। उसने नम्रतासे सिर झुका कर कहा कि-यों तो सवने मुझ पर भारी उपकार किया है, मगर चौथी रानीका सबसे अधिक उपकार मानता हूं, क्योंकि उसने अभयदान दिलवाया है। तीनों रानियोंने क्रोडौंका धन भी दिया और एक एक दिन मरनेसे भी बचाया मगर मुझे तो सदैव यही भय बना रहता था कि धनका क्या करूंगा जव कि कल मर जाना है। मगर चौथी रानीने मुझे उसी मौतके संकटसे उवारा है । अवमे यावज्जीवन पर्यन्तके लिए निर्भय हूं। अतः इस उपकारको अपने तनका पुरस्कार देकर मी नहीं चुकाया जा सकता। क्योंकि सर्व दानोंमें अभयदान प्रधानतम है। . , सर्वोच्च भाषा सत्य है-इसी प्रकार सत्य वचनोंमें निरवद्य, पापरहित, दूसरेकी पीडाको हटानेवाली भाषा सर्वोत्तम हैं। क्योंकि काना, नपुंसक, रोगी, चौरादिके नॉमसे पुकारनेपर भी उसके मनको आघात पहुंचता है। .. : मनुका मत-“सत्य, प्रिय, और अन्यके मनके अनुकूल वचन,वोलो, असत्य, और अप्रिय सत्य कभी मत बोलो.।", . , , , असत्य-असत् शब्दके तीन अर्थ हैं, सद्भावका प्रतिषेध, और अर्थान्तर वा गर्हानिन्दा । वस्तुके खरूपका अपलाप करनेको सद्भावका प्रतिपेध कहते हैं। यह दो प्रकारका है । सद्भूत पदार्थका निषेध-तथा-असद्भूत पदार्थको
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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