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________________ १६ 4 पुस्तक दर्शनीय है, मूलगत भावोंको काफी सरलताके साथ समझानेकी चेष्टा की गई है । यथा प्रसंग अन्य ग्रन्थोंके उद्धरण सोनेमें सुगन्धिका काम करते हैं यह अतिशयोक्ति न होगी। यदि में कहूं कि वीरस्तुतिका इतना लोकप्रिय संस्करण अभी तक कहींसे भी प्रकाशित नहीं हुआ । .... कुछ स्थान ऐसे भी हैं जहां लेखक स्वतन्त्र होकर चल पडा है, अस्तु तत्तत् स्थलोंपर लेखकसे' हमारा 'मत' मेद है । परन्तु ये सव वातें "एको हि दोषो गुणसंनिपाते, निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः” की सदुक्ति के अनुसार अन्य श्रेष्ठताओं छुप जाती हैं। स्थानकवासी (जैन ) समाजकी ओरसे ऐसी सुन्दर कृति उपस्थित करने के उपलक्ष्यमे श्रीयुत पुष्पभिक्षु वास्तवमें बधाईके पात्र हैं । जैनाचार्य - पूज्यश्री पृथ्वीचन्द्रजी महाराज ता० २५ अगस्त, सन् १९३९ ...... पुस्तक काफी सुन्दर लिखी गई है, बहुत से स्थलोंपर तो व्याख्या काफी प्रभावोत्पादक हो गई है । सस्कृत हिन्दी और गुर्जर तीनों भाषाओं में व्याख्या को ढालकर लेखकने क्या विद्वान् क्या सर्वसाधारण सभीके लिये अध्ययनका मार्ग प्रशस्त कर दिया है । श्रीयुत पुष्पभिक्षुने अन्य भी उपयोगी पुस्तकें लिखी हैं, परन्तु प्रभु महाचीरके चरणों में उनकी यह श्रद्धाञ्जलि तो अतीव उत्कृष्ट श्रेणीपर पहुंच गई है। में आशा करूंगा कि समाज उक्त कृतिको अधिकसे अधिक अपनायेगा और प्रभु वीरके गुणगान द्वारा लेखक के श्रमको सफल करता हुआ अपने जीवनको भी सफल वनायेगा ॥ व्याख्यान वाचस्पति पंडित श्री मदनलालजी म०, ता० २५ अगस्त, सन् १९३९ ग्रन्थ परमोपयोगी है, इसमे कुछ सन्देह नहीं कि मुनिजीने हर एक विषयको वढी गम्भीरता और साथ ही सरलतासे सुसज्जित किया है । आशा है कि ईश्वर संस्तवन प्रेमी ससार इस ग्रन्थसे महान् लाभ उठायेगा। मुनिजीका परिश्रम और विज्ञानबोध इस ग्रन्यके भवलोकन करनेसे अतिप्रशंसनीय प्रतीत होता है । सम्मति प्रदाता - " मुनि बालभिक्षु प्रेमेन्दु : "
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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