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________________ १३ जिस वीरपरमात्माका शब्दचित्र इतना भव्य है तव उनके साक्षात् परिचयमें आनेवाले श्रीसुधर्माखामीके अन्तरमें इस स्तुतिकाव्यकी स्फुरणा हुई होगी तब उन्होंने कैसी रमणीय भन्यमनस्कताका अनुभव किया होगा । तीनलोककी उत्तमोत्तम रससामग्री भी भगवान्के सत्य स्वरूपके सन्मुख उनको तुच्छ लगती होंगी। इतनेपर भी भगवानकी पहिचान करानेके लिये वे प्रयत्न करते हैं और एक अमर स्तुतिकाव्य रचकर जगत्को सौंप देते हैं। महावीरके भोंके मनको महावीर भगवान्के यथार्थ स्वरूपकी सुन्दर और गहरी झांकी हो उसकी अपेक्षा मूल्यवान् उपादेय वस्तु और क्या हो सकती है। जैनसघ इस स्तुतिके पठन पाठन और चिन्तनके प्रतापसे उनके सिद्धान्तोंका अनुसरण करनेके लिये भाग्यशाली हो! इतनी ही प्रार्थना करना वस है। ज्ञातसेवक
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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