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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १०१ मन्ना बार भावादित तृष्णा रहित हैं, सदा तीन लोकके शिखर पर विराजित हैं । अनुपमेय हैं, आकाश और काल कि तरह प्रभु अनन्त है, और वचन अगोचर हैं ॥ १७ ॥ गुजराती अनुवाद-भगवान् शैलेशी अवस्थाथी शुक्लध्यानना चोथा भेदने प्राप्त कर्या पछी आदि अनन्त मोक्षरूप अपुनरावृत्ति स्थानमा जइ बिराज्या, ते मोटा ऋषीश्वर [महावीर देव ] समस्त कर्म खपावीने पोतानाज पुरुषार्थथी ज्ञान, दर्शन, चरित्रे करी, सर्वोत्तम लोकने अग्र भागे उत्कृष्ट सिद्धगतिने पाम्या । __ आकाश अनन्त छे, ते पूर्ण लोकालोक-आकाशमा सिद्ध-परमात्मानुं ज्ञान भर्यु पच्यु छे, ते सिद्धावस्थामा निद्रा, तन्द्रा, भय, भ्रान्ति, राग, द्वेष, पीडा, संशय नथी; शोक मोह-जन्म-जरा-मरणादि पण नथी; क्षुधा-तृषा-खेद-मद-उन्मादमूर्छा-मत्सरनो अत्यन्त अभाव छे, तेमनो आत्मा अगुरु लघुत्व गुणने प्राप्त थयो छ, तेमनो आत्मवैभव कल्पनातीत छ, सिद्ध भगवान् शरीर-इन्द्रिय-सकल्प-विकल्पथी रहित छे, अनन्त वीर्यवान् छे, ख-खभावथी की पण स्खलित थता नथी, सहजानन्द प्राप्त छ, निराबाध सुखवाळा छे, परम पदमां विराजमान छे, ज्ञानप्रकाशथी प्रकाशित छे, सदैव नित्य-परिपूर्ण छ, सनातन छ, संसारना प्रपंचोथी रहित छे, कृतकृत्य छ, अचल छे, अरुज छे, अक्षय छे, आत्मप्रदेशोनी क्रियाथी रहित छे, सन्तृप्त छे, तृष्णा रहित छे, त्रणलोकना अग्रभागे विराजे छ, अनुपमेय छ, आकाश भने कालनी पेठे प्रभु अनन्त छे, तेमज वचनातीत छे ॥ १७ ॥ चर पुन र सरते ये पाने मात्र E इनम रुक्खेसु णाते जह सामली वा, .. जस्सि रइं वेययंती सुवण्णा। वणेसु वा णंदणमाहु सेहूं, . . . नाणेण सीलेण य भूतिपन्ने ॥१८॥ संस्कृतच्छाया वृक्षेषु क्षातो यथा शाल्मली वा, यस्मिन् रति वेदयन्ति सुपः। वनेषु वा नन्दनमाहुः श्रेष्ठं, ज्ञानेन शीलेन च भूतिप्रशः ॥ १८ ॥ . सं० टीका-पुनरपि वीरस्य स्तुति दृष्टान्तद्वारेणाह, वृक्षेषु मध्ये यथा ज्ञातः प्रसिद्धो देवकुरुव्यवस्थितः शाल्मलीवृक्षः, स च भुवन मा % 3E करना हैं ,
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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