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________________ वीरस्तुतिः । तेजो, पद्मा अने शुक्ला ए त्रण प्रशस्त लेश्या छे, क्रमे करीने संवेगने उत्तसरीते वधारवामां सहायरूप छे । ९८ - लेश्याओने उदाहरणथी समजावे छे चोरोनो एक समुदाय कोई गामने लुंटीने चाल्यो गयो त्यारे ते गामना लोको तेनो वदलो लेवानी इच्छाए संगठित वनीने चाल्या जाय छे । ते मा छ माणसो जुदी जुदी छ प्रकृति ना हता, रस्तामा चालता चालता पहेलाए कर्छु के( १ ) आपणे वधा त्या जईने आखा गामना जीवोनो नाश करी नाखीशुं, तेमना पाळेला पक्षिओने पण नहिी छोडीशुं (२) बीजाए कह्युंके आपणे तेमना पशु पक्षिओने कई ईजा नहि करिए । (३) भी जाए कह्युं के आपणे तेमनी स्त्रीओने कोई पण जातनुं कष्ट नहि आपिए । कारणके अन्यनी वहु दीकरीओ आपणी वहु दीकरीओ जेवी छे । ( ४ ) चोथाए कह्युं के पुरुषोमा पण जेना हाथमा शस्त्र होय तेनेज मारवा जोइए, निश्शस्त्र शत्रुने मारवा नीति विरुद्ध छे । ( ५ ) पाचमाए कछु के शस्त्रधारिओमा पण जेओ आपणा पर आक्रमण करे तेनेज मारवा । (६) छठाए क्युंके शत्रु सिवाय भूलथी पण कोई निरपराधीने न मराय । आ रीते जुदा जुदा विचारो जुदी जुदी लेश्याओ द्वारा थाय छे । अनुक्रमे पवित्र विचारो द्वारा जे कर्मरूपी शत्रु सिवाय बीजा वधानी रक्षा करे वे नरपुं व सर्वमा प्रधान अने उत्तम छे । आ रीते भगवान् वीरप्रभुनुं पण शुक्ललेश्या युक्त ध्यान छे । जेमा आत्माना अन्तरग भाव स्वच्छ होय छे, तेमनु पवित्र ध्यान शंखनी पेठे उज्वऴ वर्णनुं छे । आ रीते जगत् जीवोना हितार्थे शुक्लध्याननो उपदेश पण वीर प्रभुश्रीए करेलछे १६ मूल अणुत्तरग्गं परमं महेसी, असेसकम्मं स विसोहइत्ता । सिद्धिं गते साइमणंतपत्ते, नाणेण सीलेण य दंसणेण ॥ १७ ॥
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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