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________________ - वीरस्तुतिः। - - , ए बन्नेनो सम्यक् प्रकारे निग्रह करे छे। त्यारे ते सूक्ष्म क्रिया ध्यानने साक्षात् ध्यान करवा योग्य बनावी ले छे। अने ते त्यां एक सूक्ष्म काययोगमां स्थिति करीने तेनुं ध्यान करे छे। आ रीते प्रभुनु आ "सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति" ध्यान छ । अयोग गुणस्थानना उपान्त्य अर्थात् अन्तसमयना प्रथम समये देवाधिदेवनी मुक्तिरूपी लक्ष्मीने प्रतिवन्धक कर्मोनी प्रकृतिओ शीघ्र नाश पामी जाय छे भगवान् अयोगी परमेष्टीने ते अयोग नामा गुणस्थानना उपान्त्य समये साक्षात् रूप अने निर्मळ “समुच्छिन्नक्रिया" नामे शुक्लध्याननो चोथो पायो प्रगट थाय छे ।' - ते भगवान् प्रधान धर्म प्रकाशीने प्रधान-उज्वळमां उज्वळ, दोष रहित, उज्वळ शंख अने चन्द्रमानी पेठे एकान्त निर्मल सर्वध्यानमा सर्वोत्तम एवं शुरू ध्यान ध्याय छ। लेश्यानी दृष्टिए पण तेमनी महान् शुक्ललेश्या छ। आत्मामां पुण्य पापने लिप्त करीने पोताना जेवां वनावी-ल्ये, तेने लेश्या कहे, छे, ते बे जातनी होय छे। ते प्रवृत्ति अने यौगिकी होय छे । प्रवृत्ति कषायना रंगमा रगी ल्ये छ । भावथी असत् परिणति तथा पर परिणतिरूप छे । योग-अवि. रति-मिथ्यात्व-कषाय-प्रमादजन्य कर्मसस्कारोथी भावलेल्या होय छे । के जे पाप, अने आस्रवनुं कारण छ। कापोती तीव्र भाव छे, नीला तीव्रतर अने कृष्णा तीव्रतम भाव छ। आ अशुद्ध विचारोनो, क्रम छ । पीता पापनी मन्दतानुं नाम छे, पद्मा मन्दतर अने शुका मन्दतमने कहे छे । अशुभ भाव-लेश्या आत्मानी निर्मलतानो नाश करे छे, शुभ भावलेल्या कर्ममेलनो नाश करे छे, अन्तिम लेश्या सहजानन्द-निर्लेशीप, अपाववामा निमित्तभूत छ। कृष्णलेश्या- आ दुर्भावनाना फंदमा पाठीने जीवने राग-द्वेषना ग्रहथी असाय छे, पर परिणति अने पुद्गलपूजा-जडपूजानो दुराग्रह तेना थी आवे छे, मन दुष्ट अने म्लान रहे छ, अनन्तानुवन्धीना तीन क्रोध-मान-माया-लोभथी घेरायेलो होय छे, भावोमां थी निर्दयता जती नथी, पाप कार्य करीने तेनो कदी पस्तावो यतो नथी। मांस मदिरानो भोगी होय छे, कुकर्ममा आसक्त होय छे। आ लक्षणो वाळो मनुष्य 'कृष्णलेश्या' चामे जाणवो।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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