SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसमें विचार और विवेचनापूर्वक प्रतिपादन किया गया है । बस यही नयापन है । इसमें जिस मुख्य सिद्धान्तका प्रतिपादन किया गया है, मनुष्य समाजमें वह बराबर स्थिर रहा है । ऐसा कभी नहीं हुआ कि मनुष्यजाति उसे सर्वथा भूल गई हो । इतना अवश्य है कि पहलेके अधिकांश समयोंमें थोड़ेसे विचारशील लोगोंके चित्तोंमें ही उसका अस्तित्व रहा है। पेस्टालोजी' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थकर्ताका विलक्षण बुद्धि और प्रयत्नसे जो शिक्षा और संस्कार-सम्बन्धी विचार जागृत हुए हैं, उनमें इस सिद्धान्तके स्पष्ट चिह्न दीख पड़ते हैं । हम्बोल्ट साहबने तो इस सिद्धान्तके प्रचारका बीड़ा ही उठाया था। जर्मनीमें भी इस सिद्धान्तके माननेवालोंकी कमी नहीं रही है । उनमेंसे बहुतोंने तो व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी और इस मतकी कि-" अपने नैतिक स्वभावको चाहे जिस ओर झुकानेका प्रत्येक मनुष्यको नैसर्गिक अधिकार है " एक प्रकारसे अतिशयोक्ति ही कर डाली थी। इंग्लैंडमें यदि देखा जाय तो स्वाधीनताके प्रकाशित होनेके पहले विलि. यम मेकालेने 'व्यक्तिमाहाम्त्य' पर कई निबन्ध लिखे थे। और, अमेरिकामें तो वॉरन नामके एक पुरुषने 'व्यक्तिसाम्राज्य' की नीवपर एक नया पन्थ ही स्थापित किया था। उसने बहुतसे अनुयायी भी बना लिये थे । वह अपने अनुयायियोंका एक जुदा गाँव ही बसाना चाहता था, परन्तु मालूम नहीं हुआ कि यह पन्थ रहा या नष्ट हो गया । मतलब यह कि मिलका वह सिद्धान्त, जिसका कि उसने स्वाधीनतामें प्रतिपादन किया है, बिलकुल नया नहीं है। उसके पहलेके विद्वान् भी उसके विषयमें विचार करते आये हैं । परन्तु मिलकी विवेचन-पद्धति ऐसी उत्तम है-उसने इस सिद्धान्तको ऐसी उत्तमतासे समझाया है--कि उसकी शतमुखसे प्रशंसा करनी पड़ती है ।
SR No.010689
Book TitleJohn Stuart Mil Jivan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages84
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy