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________________ इस उत्तम ग्रन्थकी अच्छी कदर हुई और उस समय पाश्चात्य देशोंमें ऐसे ग्रन्थोंके पढ़नेका—कमसे कम खरीदनेका-शौक बढ़ चला था। मिलना जुलना कम कर दिया । इस समय मिल मासिक पत्रसे सम्बन्ध छोड़ चुका था। तात्कालिक राजनैतिक प्रश्नोंसे उसने अपना चित्त हटा लिया था और उसकी उम्र भी कुछ अधिक हो गई थी। इस लिए अब वह बहुत ही थोड़े लोगोंसे मिलने जुलने लगा। इंग्लैंडमें मिलने जुलने या मेल मुलाकात बढ़ानेकी रीति बहुत ही वेढंगी है। उसमें बहुधा ऐसी ही बातें होती हैं जो केवल इस लिए की जाती हैं कि वे परम्परासे चली आ रही हैं-पर उनसे प्रसन्नता रत्ती भर भी नहीं होती है। वहाँ दस आदमियोंकी बैठकमें किसी वादग्रस्त महत्त्वके विषयकी चर्चा छेड़ना तो एक प्रकारकी असभ्यताका काम समझा जाता है। फ्रेंचलोगोंके समान छोटी छोटी बातोपर हँसी खुशीके साथ विचार करनेकी वहाँ पद्धति नहीं है। तब वहाँका मिलना जुलना केवल लोकरूढ़िका. सत्कार करना है। उससे सिवाय इसके कि कुछ बड़े आदमियोंसे जान पहिचान हो जाती है और कुछ लाभ नहीं। मिल जैसे तत्त्वज्ञानीको ऐसा मिलना जुलना कब पसन्द आ सकता था ? उसको इससे अरुचि होनी ही चाहिए थी। इस प्रकारके मेल-जोलसे. मेलजोल रखनेवालेकी बुद्धि कितनी ही उन्नत क्यों न हो, अवनत होने लगती है और उसके विचार कितने ही उत्कृष्ट क्यों न हों निकृष्ट होने लगते हैं। इसका कारण यह है कि उसे इस मेल-जोलके मंडलमें अपने विलक्षण विचारोंके प्रकट करनेसे संकोच करना पड़ता है-वह देखता है कि, यहाँ अपने विचारोंको प्रकट करना ठीक न होगा और ऐसा करते करते एक दिन उसे स्वयं ही ऐसा मालूम होने लगता है
SR No.010689
Book TitleJohn Stuart Mil Jivan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages84
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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