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________________ श्यक साधन है । अब तक उसकी यह समझ थी कि मनुष्यको यदि इस योग्य बाह्य-शिक्षा मिल गई कि उससे उसके विचार और आचार अच्छे हो जावें तो काफी है। उसके अन्तःकरणको परिष्कृत करनेकी अथवा विकसित करनेकी आवश्यकता नहीं है। परन्तु स्वानुभवसे अब उसकी यह समझ बदल गई । इससे पाठकोंको यह न समझना चाहिये कि बौद्धिक शिक्षाके मूल्यको वह कुछ कम समझने लगा । नहीं, उसका यह विश्वास हो गया कि मानवीय सुखकी प्राप्तिके लिये बौद्धिक शिक्षाके समान ही नैतिक शिक्षाकी भी मनोभावोंको विकसित करनेके लिये आवश्यकता है । सार यह कि मनुष्यकी जो अनेक प्रकारकी मानसिक शक्तियाँ हैं वे सब ओरसे बराबर शिक्षित और विकसित होनी चाहिये। ललितकला और कान्यकी रामबाण ओषधि । अब उसे यह भी मालूम होने लगा कि मनुष्यकी शिक्षाके लिये काव्य और ललितकलाओंकी कितनी आवश्यकता है । कुछ दिनोंमें उसे इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी होने लगा । लड़कपनसे मानसिक कलाओंमें उसे गाने बजानेकी कला ही अच्छी लगती थी । इस बातका उसे पहलेहीसे अनुभव था कि सुन्दर गान और वादनसे मनको एक प्रकारकी तन्द्रा आ जाती है, उत्साह और आनन्दकी वृद्धि होती है और धीरे धीरे उसके सुरों तथा आलापोंसे तादात्म्य हो जाता है। परन्तु बीचमें जब उसे निरुत्साहरूपी रोगने घेरा था, तब उसके चित्तपर इस कलाका परिणाम होना बन्द हो गया था । किन्तु जब ऊपर वर्णन की हुई घटनासे उसकी दशा बदली तब निरुत्साहका शमन करनेके लिये यह ओषधि बहुत गुण करने लगी ।
SR No.010689
Book TitleJohn Stuart Mil Jivan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages84
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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