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________________ तिरोभाव हो गया। उसे ऐसा अनुभव होने लगा कि यदि ऐसा है, तो फिर जीते रहनेमें ही क्या मजा है ? उसे आशा थी कि यदि कुछ दिनों रातको अच्छी नींद आ जायगी तो यह निरुत्साह निकल जायगा। परन्तु उसकी यह आशा सफल न हुई । सोते-जागते बैठतेउठते हर समय उसके चित्तों यही विचार रहने लगा । कभी कभी उसकी यह इच्छा होती थी कि अपने इस दुःखको किसीसे कहकर मैं कुछ हलका हो जाऊँ । परन्तु दूसरोंसे कहनेमें उसे यह संकोच होता था कि वे मेरी हँसी उड़ावेंगे। रहा पिता, सो उससे कहनेका उसे साहस न होता था । क्योंकि एक तो उसकी समझमें यह बात आती ही कठिनाईसे, और यदि आ भी जाती तो उसे उलटा इस बातका दुःख होता कि मैंने लड़केको पढ़ाने में जो अपरिमित परिश्रम किया उसका परिणाम आखिर यह निकला। इस कारण उसने अपना दुःख अपने हृदयमें ही रक्खा; किसीसे कुछ भी नहीं कहा । अपने चित्तकी इस शोचनीय अवस्थामें यद्यपि उसने अपने नित्यके व्यवसाय छोड़ नहीं दिये तथापि जिस तरह यंत्रोंसे काम होता है उसी प्रकार वे उसके द्वारा होते थे । अर्थात् जो कुछ वह करता था पूर्वके अभ्यासवश करता था-विचार या प्रयत्नपूर्वक नहीं। कोई छः महीने तक उसकी यही हालत रही। उत्साहका पुनः सञ्चार। एक दिन उसने एक विद्वान्के बनाये हुए स्वकुटुम्बचरित्र' नामक ग्रन्थमें एक जगह पढ़ा कि-" मैं जब छोटा था तब मेरा पिता मर गया और मेरे कुटुम्बपर एकाएक अपत्तिका पहाड़ टूट पड़ा। उस समय मैंने अपने कुटुम्बियोंको धीरज बँधाया कि तुम दुखी मत होओपिताका मैं तुम्हें कभी स्मरण न होने दूंगा।” इन वाक्योंके पढ़ते
SR No.010689
Book TitleJohn Stuart Mil Jivan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages84
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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