SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचन-सुधा से कब-कब कितना धन कहाँ से चुराया है ? वह बोला—महाराज, वह खजाना तो मुझे आपको बताने के लिए मनाई की हुई है। परन्तु मैं यह सत्य कहता हूं यह खजाना आपका है और नैंने अमुक-अमुक समय इतना धन चुराया है कि अपना सारा धन देने पर भी मैं आपके ऋण भार से मुक्त नहीं हो सकता हूं। राजा ने पूछा- उस खजाने मे कितना माल है ? उसने कहा --- महाराज, इसका भी मुझे कुछ पता नहीं हैं । परन्तु मैं इतना अवश्य जानता हूं कि उसमें अपार धन है ? राजा ने कहा----यदि ऐसी बात है तो तू यह खजाना मुझे बता । वह बोला महाराज, इसके लिए मैं क्षमा चाहता हूं, क्योकि मेरे पिता ने मरते समय उसे बताने के लिए मना किया था। हाँ, राज्य पर संकट आने के समय उसमें से धन निकाल कर आप को देने के लिए अवश्य कहा था । राज्य इस समय सकट-ग्रस्त है और मैंने उसमें से धन चुराया है। मेरे पास इस समय इतना धन है कि राज्य का संकट टल सकता है । अतः मैं आप सबसे यही प्रार्थना करता हूं कि आप मेरा धन लेकर मुझे शुद्ध कीजिए और राज्य के संकट को दूर कीजिए । राजा ने पूछा-~-तूने खजाने में से धन क्यों चुराया ? उसने कहा- महाराज, मेरी आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर हो गई थी और कुटुम्ब के भरण-पोपण का कोई मार्ग मेरे पास नहीं था, अत. पर-वश होकर मैंने खजाने में से धन लिया है। राजा ने पूछा--कितना धन लिया है ? वह बोला महाराज, मोखिक तो मैं नहीं बता सकता । परन्तु जब-जब जितना धन लिया हैं, उसे मिती-बार मैने अपनी वही मे अवश्य लिखा है। राजा ने कहा यदि ऐसा है, तो तू मेरे पैरों को हाथ लगाकर के कहदे कि मैंने चोरी की है। उसने कहा--महाराज, में इससे भी बढ़कर हल्फिया कह सकता हूँ कि मैंने आपकी चोरी की है । यदि इतने पर भी आपको मेरी बात पर विश्वास न हो, तो आप मेरा सिर धड़ से अलग कर सकते हैं । उसकी यह बात सुनकर रानी ने राजा से कहा-यह सज्जन पुरुष प्रतीत होता है, अतः इसकी बात को आप मान लीजिए । राजा ने कहा--इसे चोर मानने और इसका धन लेने के लिए मेरी आत्मा गवाही नहीं देती है। परन्तु यह मेरे पैरों को हाथ लगाकर क्यों नहीं कहता है कि मैं चोर हूं। तव रानी ने उससे कहा- यदि तू महाराज के चरणों को हाथ लगाकर कहने को तैयार नहीं है तो देवगुरु की साक्षी से कहदे कि मैं चोर हूं। उसने कहा हज़र, जब मेरी आत्मा स्वयं साक्षी है, तब मैं देव-गुरु को क्यों साक्षी बनाऊँ ? उनको साक्षी बनाने की आवश्यकता ही क्या है ? इस प्रकार न राजा ही उसे चोर मानने को तैयार हआ और न उसने । देव-गुरु की साक्षी-पूर्वक कहने की बात ही स्वीकार की वह बार-बार यही ।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy