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________________ ४५. पापो की विशुद्धि का मार्ग - आलोचना इतनी सामायिक की है, उतने व्रत-उपवास किये हैं और इतना दान दिया है ! आप लोग स्वयं विचार कीजिए कि उक्त कार्यो को करनेवाला व्यक्ति क्या अपने पापों की आलोचना किये बिना ही तिर जायगा ? कभी नहीं तिर सकेगा । स्वयं स्वयं के द्रष्टा भाइयो, भगवान महावीर का बताया मोक्ष का मार्ग तो बहुत सीधा और सरल है तथा उच्चकोटि का है। उन्होंने कहा है कि यदि तुम से भूल हुई है, जिसके प्रति दुर्भाव रसे हैं, या कोई अपराध किया है, तो उससे क्षमा-याचना करो और अपनी भूल की आलोचना, निन्दा और गह करो, तुम्हारा पाप धुल जायगा और तुम निर्दोष हो जाओगे, निर्मल वन जालोगे । अपनी शुद्धि का यही राजमार्ग है । जैन शासन के धारक व्यक्ति की महिमा देखो कि उस की भूल को किसी ने देना नही, किसी ने बताया नही और दुनिया जिसे साहूकार और भला मनुष्य मानती है । परन्तु भुल होने पर वह स्वयं अपने मुख से कहता है कि भाई साहब, आप मुझे साहकार मानते हैं, परन्तु मै चोर हूं, क्योंकि मैंने अमुक-अमुक चोरिया की है। उसकी यह बात सुनकर लोग दंग रह जाते हैं कि यह कितना ईमानदार और मरल व्यक्ति है कि जिसकी चोरियो को कोई भी नहीं जानता, उन्हें वह अपने हो मुख से कह रहा है । भाई, सच पूछो तो मैं कहूंगा कि उसने ही धर्म का मर्म जाना है । और इस प्रकार बिना किसी के कहे ही अपने अपराधी को कहने और स्वीकारने वाला मनुष्य नियम से संसार को तिरने वाला है । एक राजा का गुप्त खजाना था, पर न उमे उसका पता था और न राज्य के अन्य अधिकारियो को ही । इसका कारण यह था वह खजाना कई पीढ़ियों से इसी प्रकार सुरक्षित चला वा रहा था और उसकी चावी भी सदा से एक व्यक्ति के परिवार के पास सुरक्षित चली आ रही थी । उस परिवार को उसके पूर्वज सदा यह हिदायत देते आ रहे थे, कि इन खजाने का भेद किसी को भी न वताया जाय । हा, जब राज्य आर्थिक सवट से ग्रस्त हो, तब इस खजाने से उसे द्रव्य दिया जावे। जिस व्यक्ति के पास उस खजाने की चाबी थी, उसकी आर्थिक दशा बिगडने लगी और वह अपने कुटुम्ब के पालन-पोपण करने के लिए समय-समय पर इस खजाने में से आवश्यकता के अनुसार थोडा-थोड़ा धन निकाल कर अपना निर्वाह करने लगा। धीरे-धीरे उसकी लोभ वृत्ति बढ़ने लगी और वह आवश्यकता से भी अधिक धन निकालने लगा और ठाठ बाट से रहने लगा। उसकी यह शान-शौकत देखकर पड़ोसियो को सन्देह होने लगा
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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