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________________ उदारता और कृतज्ञता स्वीकारता दे देना चाहिए। ऐसा विचार करके उसने उसे जाने के लिये हां भर दी कि तुम जा सकती हो । पति की आज्ञा पाकर वह शादी के उसी रूप में सर्व वस्त्राभूषण पहिने हुए अपने बचपन के साथी से मिलने के लिए चल दी। उसका पति भी उसकी परीक्षा के लिये गुप्त रूप से उसके पीछे हो लिया। कुछ दूर जाने पर उसे रास्ते में चार चोर मिले। उसे वस्त्राभूषणों से सज्जित देखकर बड़े खुश हुए और बोले कि आज तो अच्छा शकुन हुआ है। चोरों ने पूछा-तू कहां जा रही है ? उसने कहा--तुम लोग मेरे से दूर रहना ! अभी मैं अपने एक वचन को पूरा करने जा रही हैं। यदि तुम्हें मेरे गहने चाहिये हैं तो मैं वापिस आते समय तुम्हें स्वयं उतार करके दे दूंगी। यह सुनकर चोर बड़ विस्मित हुये और सोचने लगे कि हमने वहुत-सी चोरियां की और अनेकों को लूटा हैं। मगर इसके समान वचन देने वाला अभी तक कोई नहीं मिला। जब यह वचन दे रही है, तब इसकी परीक्षा करना चाहिये । यह सोचकर उन्होंने उसे चले जाने दिया। कुछ दूर आगे जाने पर उसे तीन दिन का भूखा एक राक्षस मिला । उसे देखते ही उसने सोचाआज तो खुराक मिल गई है। यह इसके पास आया और बोला--भगवान का नाम सुमर ! मैं तुझे खाऊँगा । इसने कहा---यदि तुझे खाना है तो खा लेना । मगर पहिले मुझे अपना एक वचन पूरा कर आने दे। वापिस लौटने पर खा लेना । राक्षस ने भी उसे जाने दिया। __ अब वह वहाँ से चलकर सीधी उस साथी के घर पहुंची। उसके घर का द्वार बन्द था और सब लोग रात्रि के सन्नाटे में गहरी नींद ले रहे थे। इसने द्वार के किवाड़ खटखटाये । खटखट सुनकर उसने पूछा - कौन है ? इसने कहा---मैं हूँ, किवाड़ खोल । उसने किवाड़ खोले और इसे देखकर पूछा-~आधी रात को इस समय तुम यहां कसे आयीं । उसने कहा-पढ़ते समय मैंने तुम्हें वचन दिया था कि शादी की पहिली रात में तुम्हारे पास आऊँगी । अतः उसी बचन को पूरा करने के लिये मैं तुम्हारे पास आई हूँ। यह सुनते ही वह मन में सोचने लगा-धन्य है इसे, जो अपने पति की याज्ञा लेकर अपना वचन पूरा करने के लिये यहां आई। अब यदि मैं इसके सतीत्व को भ्रष्ट करूं तो मेरे से अधिक और कीन नीच होगा? अव यह मेरी बहिन के समान है। ऐसा विचार कर उसने उससे कहा-वाई, अब आप वापिस घर पधारें। यह कह कर उसने उसे चूंदड़ी ओढा करके उसे रवाना किया और उसे पहुंचाने के लिए स्वयं साथ हो गया। यह सारा हाल गुप्त रूप से उसका पति देख रहा था ।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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